सोमवार, 14 नवंबर 2011

नीतीश की विफलताएं व चुनौतियां


नीतीश कुमार बिहार के सबसे बेहतर मुख्यमंत्री कहला रहे हैं। कुछ मायनों में यह सच हो सकता है लेकिन पूरी तरह से नहीं। कुछ मामलों में नीतीश वाकई अच्छा काम कर रहे हैं। जैसे- नौवीं कक्षा के विद्यार्थियों को साइकिल देना, जनता के दरबार में मुख्यमंत्री, निगरानी ब्यूरो को सक्रिय करना, सड़कों का निर्माण और मरम्मत, कैबिनेट की नियमित बैठक, कानून व्यवस्था की पुनस्र्थापना, सेवा का अधिकार, पंचायती राज में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण, राजनीति में वंशवाद को हतोत्साहित करना, दागी विधायकों को मंत्रीपद से दूर रखना आदि। एक सबसे अच्छी बात यह भी मैं मानता हूं कि जब बिहार ही नहीं, अपितु पूरे देश में यह माना जाने लगा था कि अब बिहार का कुछ नहीं हो सकता, उस समय नीतीश ने बिहार में भी बहुत कुछ होने की संभावना जतायी। बिहारियों में आत्मविश्वास जगाया। परंतु, बहुत मामलों में नीतीश बुरी तरह से विफल हैं।
सबसे पहले शिक्षा की बात करें। शिक्षा पर ही किसी राज्य या देश का भविष्य निर्भर करता है। नीतीश सबसे अधिक इसी में विफल रहे। निविदा पर शिक्षकों की नियुक्ति कर कुछ बात संभालने की कोशिश की गयी। इसमें मुखिया और कर्मचारियों की मनमानी इतनी ज्यादा चली कि बात बनी कम, बिगड़ अधिक गयी। आज बिहार के 99 फीसदी से भी अधिक सरकारी उच्च विद्यालयों में प्रैक्टिकल नहीं कराया जाता। फिर भी परीक्षा ली जाती है और बच्चे उत्तीर्ण भी हो जाते हैं। यह बहुत ही दुखद है कि बिहार में विज्ञान संकाय के हजारों ऐसे स्नात्तक हैं, जिन्होंने कभी परखनली देखी तक नहीं है। ऐसे विद्यार्थियों से कितनी उम्मीद की जा सकती है? 90 फीसदी उच्च विद्यालयों में प्रैक्टिकल के उपकरण नहीं हैं। 
कई महाविद्यालय सिर्फ नामांकन, निबंधन और फाॅर्म भरने का ही काम करते हैं। विश्वविद्यालयों में दशकों से शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है। रिक्त पदों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में कक्षा, शौचालय, पेयजल जैसी सुविधाओं तक का अभाव है। दशकों से नये छात्रावासों का निर्माण नहीं हुआ।
नीतीश ने अपने पहले कार्यकाल में ही एक बार समान शिक्षा नीति का जिक्र किया था। उस समय लगा था कि वाकई नीतीश यह क्रांतिकारी काम कर दिखाएंगे। परंतु, न जाने कौन सा दबाव पड़ा कि उन्होंने दुबारा इसका नाम भी नहीं लिया। अगर नीतीश ऐसा कर पाते देश के सामने एक मिसाल बनते। उन्होंने छात्रों को कोचिंग वालों की लूट से बचाने के लिए कोचिंग नीति लागू करने की घोषणा की लेकिन यह भी हवाहवाई बयान ही साबित हुआ। शिक्षा का अधिकार कानून भी राज्य में लागू नहीं हो पा रहा है।
दूसरा मुद्दा स्वास्थ्य का है। चिकित्सकों की कमी बदस्तूर जारी है। जो उपलब्ध हैं, वे अस्पताल से अधिक अपने क्लिीनिकों पर समय बिताते हैं। जूनियर डाॅक्टरों की हड़ताल तो नीतीश सरकार में आम बात हो गयी। यह सच है कि सरकारी अस्पतालों में मरीजों की संख्या काफी बढ़ी है। परंतु, हाल इतना अच्छा नहीं है, जितना ढिंढोरा पिटा जा रहा है। अस्पतालों में ढेर सारी दवाइयां उपलब्ध कराने की बात कही गयी लेकिन सूची में अधिकतर दवाइयों के आगे नाॅट एवलेबल अंकित रहता है। ऐसे भी आरोप लगे हैं कि दवा कंपनियों से रिश्वत लेकर घटिया दवाइयों को अप्रूव किया जा रहा है। प्राथमिक स्वास्थ्य उपकेंद्रों में से 50 फीसदी से अधिक कभी खुलता ही नहीं।
मुख्यमंत्री ने मरीजों को साफ बिस्तर उपलब्ध कराने के लिए रंगीन बेडसीट योजना शुरू की। आलम यह है कि सबसे अधिक चर्चित और वीआईपी लोगों के आवागमन से भरा रहने वाले पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल में ही यह आज तक ठीक से लागू नहीं हो सका। रोज बेडसीट बदलने की बात कौन कहे, दर्जनों सदर अस्पतालों में मरीजों का फर्श पर ही इलाज होता है। राज्य के बड़े-बड़े चिकित्सा संस्थानों में ओटी की दीवारों की मरम्मत के नाम पर छह-छह महीने तक आॅपरेशन नहीं हो सके।
राज्य में मेडिकाॅल काॅलेजों की बहुत कमी है। अपने पहले कार्यकाल के पहले साल से ही सरकार आधा दर्जन नये मेडिकल काॅलेज शीघ्र खोलने की घोषणा कर रही है। यह 10 फीसदी ही सच है। अभी तक तो यह हाल है कि जो मेडिकल काॅलेज चल रहे हैं, उन्हीं को बार-बार मेडिकल कौंसिल आॅफ इंडिया से बार-बार मान्यता खत्म करने की चेतावनी दी जा रही है क्योंकि उनमें न तो आवश्यक शिक्षक हैं और न ही अन्य आवश्यक सुविधाएं। ऐसे में मान लेते हैं कि एमसीआई नये मेडिकल काॅलेजों की मंजूरी दे भी देता है तो उनमें शिक्षक कहां से आएंगे?
तीसरी बड़ी विफलता पंचायती राज को लेकर है। नीतीश ने इसमें महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया। यह वाकई सराहनीय कदम माना जाएगा। परंतु, इसके बाद पंचायती राज में सिर्फ नाकारात्मक चीजें ही हैं। पंचायती राज का मूल तत्व ग्राम सभा ही बिहार में खत्म हो चुका है। सारे निर्णय मुखिया और पंचायत सचिव दोनों मिलकर लेते हैं। बिहार में    ग्राम पंचायतें हैं, लेकिन आठ पंचायतों में भी ग्राम सभा की बैठकें नहीं होतीं। ग्राम सभा के सारे अधिकार मुखिया के हाथों में है। यूं कह लीजिए कि पंचायती राज बिहार में मुखिया राज बनकर रह गया है।
चैथी बड़ी विफलता युवा और संस्कृति गतिविधियों के मामले में है। सरकार बार-बार सिर्फ अच्छे स्टेडियमों के निर्माण की घोषणा ही करती रही। दूसरी ओर जो पहले से निर्मित स्टेडियम हैं, उनका भी ठीक ढंग से रख-रखाव नहीं हो पा रहा है। उच्च विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में खेलकूद और संस्कृति कार्यक्रम संबंधी गतिविधियां थम सी गयी हैं। राज्य के अच्छे खिलाडि़यों को भी प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। राज्य में होने वाली सभी खेल प्रतियोगिताओं में पैरवी, पैसा और अफसरशाही हावी है। बिहार के क्रिकेटरों को आज तक रणजी ट्राॅफी तक में खेलने का अवसर नहीं मिल सका जबकि यहां एक से बढ़कर एक खिलाड़ी हैं। सरकार ने इस दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया। कभी हर गांव में दो-चार फुटबाॅल टीमें थीं। अब दस गांवों में खोजने पर भी एकाध टीम मुश्किल से मिलती है।
कुछ ऐसा ही संास्कृतिक गतिविधियों का भी हाल है। बिहार का वातावरण कला व संगीत से भरा पड़ा है। यहां चक्की चलाने, धान रोपने से लेकर भैंस चराने तक के गीत उपलब्ध हैं। परंतु, ऐसा प्रतीत होता है कि संरक्षण के अभाव में शीघ्र ही कई विधाएं लुप्त हो जाएंगी। कितना दुखद है कि बिहार में भिखारी ठाकुर का साहित्य भी आसानी से प्राप्य नहीं है। यही हाल पूर्वी के जनक और महान गीतकार महेंन्दर मिसिर के साथ है। संग्रह के अभाव में उनके गीत खोते जा रहे हैं। राजधानी में उनका कहीं कोई स्मारक नहीं है। नये प्रतिभाओं को उभरने के अवसर नहीं मिल रहे हैं। राज्य में रंगशाला का घोर अभाव है।
नीतीश कुमार की अगली बड़ी विफलता कृषि के मोर्चे पर है। किसान सालों भर समस्याओं से जुझते रहते हैं। हालांकि नीतीश सरकार ने किसानों के लिए कई योजनाएं चलायीं, लेकिन उनका ईमानदारी से अनुपालन नहीं हो सका। जगह-जगह किसान मेले लगाकर किसानों को कृषि उपकरण व यंत्र उपलब्ध कराये गये। उसके लिए किसानों को 50 फीसदी तक की सब्सिडी दी गयी। परंतु, इसका फायदा किसानों को कम और कंपनियों को अधिक मिला। कंपनियों ने कृषि मेले में बाजार भाव से दुगने दाम रखे। ऐसे में किसानों को तो वही कीमत देनी पड़ी, कंपनियों को सब्सिडी का फायदा मिल गया। खाद के लिए पूरे बिहार में मारामारी रही। जमाखोरों और कालाबाजारियों ने कृषि अधिकारियों से सांठ-गांठ कर जमकर किसानों को लूटा। सरकार तमाशबीन बनी रही।
किसानों की मदद के लिए कृषि सलाहकार व विषय वस्तु विशेषज्ञों की नियुक्ति की गयी। जिन उद्देश्यों को लेकर उनकी नियुक्ति की गयी, उसमें 10 फीसदी भी सफलता नहीं मिली। वे किसानों को प्रशिक्षण देने के नाम पर बीएओ के साथ मिलकर करोड़ों रुपये डकार गये और अभी भी यह बदस्तूर जारी है। 
किसानों का उत्पाद खरीदने के लिए कोई प्रभावशाली ढांचा नहीं है। 80 फीसदी किसान आज भी अपना सामान बिचैलिये को बेचने पर मजबूर हैं। किसानों से औने-पौने दाम में उत्पाद खरीदकर बिचैलिये फिर उसी उत्पाद को महंगे दामों में बेचते हैं। किसानों की उत्पाद पर राज्य सरकार इसे केंद्र का काम बताकर पल्ला झाड़ लेता है। दूसरी ओर केंद्र का कहना है कि बिहार में भंडारण की सुविधा ही नहीं है। ऐसे में वह किसानों का उत्पाद खरीदने में अक्षम है।
किसान क्रेडिट कार्ड का हाल और भी बुरा है। सभी बैंकों के आसपास दलालों का वर्चस्व है। आलम यह है कि किसान यह मान बैठे हैं कि बिना दलाल के केसीसी बन ही नहीं सकता। दूसरी ओर बैंक किसानों को इतना दौड़ाते हैं कि कोई ईमानदार किसान भी दलाल की शरण में ही जाना उचित समझता है। केसीसी बन जाने के बाद भी किसानों को बैंक से ऋण देने में बैंक कतराते हैं और काफी परेशान करते हैं। डीजल अनुदान की रकम अधिकांश जगहों पर मुखिया व पंचायत सेवक मिलकर खा गये।
सिंचाई का भी हाल अच्छा नहीं है। नहरें जीर्णोद्धार के अभाव में काफी कमजोर हो चुकी हैं। बरसात के दिनों में भी नहरों के टेल प्वाइंट तक पानी नहीं पहुंच पाता। सिंचाई विभाग के कर्मी वेतन उठाने के अलावा अपना और कोई दायित्व नहीं समझते। किसान हमेशा से ही सबसे अधिक बदहाल रहे हैं। कृषि से संबंधित कई ऐसी योजनाएं हैं, जिनसे सिर्फ बड़े किसानों को ही लाभ मिलता है। 
नीतीश की अगली विफलता बिजली को लेकर है। इसी कारण में राज्य में उद्योग नहीं लगने की विफलता की कहानी भी छिपी है। यह सच है कि बिजली को लेकर केंद्र का रवैया सौतेला रहा है। वह बिहार को संसाधन उपलब्ध नहीं करा रहा। फिर भी क्या बिजली को लेकर केंद्र को कोसने भर से नीतीश कुमार की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है? राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत हजारों गांवों में ऐसे साइनबोर्ड लगा दिये गये, जिनपर लिखा है कि इस गांव का विद्युतीकरण उक्त योजना के तहत कर दिया गया। ऐसे बोर्ड लगे कई साल बीत गये, परंतु आज तक बिजली पहुंची ही नहीं। इस मुद्दे को नीतीश ने कभी क्यों नहीं उठाया? बिजली को ही लेकर अगली बात। बिहार के जिन इलाकों में बिजली की पहुंच है, वहां की स्थिति भी काफी बदतर है। थोड़ा सा वोल्टेज बढ़ते ही तार टूटने लगते हैं। अच्छे तार लगाने और जर्जर तारों की मरम्मत करने की जिम्मेदारी नीतीश क्यों नहीं निभा पा रहे? यह समस्या राजधानी तक में है। कई ऐसी जगहें हैं, जहां ट्रांसफर वर्षों पहले उड़ गये और दस-दस साल तक नहीं लगे। इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
एक और अहम मोर्चे पर जहां नीतीश असफल साबित हुए हैं, वह है उद्योग धंधों की स्थापना। उम्मीद थी कि नीतीश उद्योगपतियों का विश्वास जीतने में सफल रहेंगे। इन्हें बेस्ट बिजनेस रिफाॅर्मर का अवार्ड भी मिला। परंतु, बिहार में उद्योग धंधों का अपेक्षित विकास नहीं हो सका। इसका एक बड़ा कारण बिजली का अभाव माना जा सकता है। फिर भी भूलना नहीं चाहिए कि बिहार में अकूत मानव संसाधन है। कृषि से जुडे़ उद्योगों की भी अपार संभावनाएं हैं। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए था। बिहार में केला, आम व लीची की काफी अधिक पैदावार होती है। औषधीय पौधों की खेती भी काफी की जा सकती है। चीनी की सैंकड़ों मिलें चल सकती हैं। आधे भारत को चीनी की आपूर्ति बिहार से की जा सकती है। इसके अलावा लघु उद्योगों व कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित कर भी राज्य में काफी बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। इससे सरकारी खजाने और प्रति व्यक्ति आय दोनों में वृद्धि होगी।
अगला मोर्चा भ्रष्टाचार का है। नीतीश कुमार ने इस मोर्चे पर काफी काम किया। निगरानी ब्यूरो को सशक्त किया गया। भ्रष्टों की संपत्ति जब्त करने का कानून बना। रिश्वतखोरों का मुकदमा फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाया जा रहा है। फिर भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली। कहीं ऐसा नहीं लगता कि सरकारी कार्यालयों में व्याप्त रिश्वतखोरी कहीं से कम हुई है। 
नीतीश की अगली विफलता पर्यटन को लेकर है। हालांकि नीतीश के कार्यकाल में पर्यटकों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। फिर भी उम्मीद से काफी कम है। बिहार में पर्यटन के इतने अधिक स्थल हैं कि उसी के बदौलत बिहार भारत का सबसे समृद्ध राज्य बन सकता है। सरकार ने इस मामले में बुद्ध से जुड़े कुछ स्थलों को विकसित करने के अलावा कुछ खास नहीं किया है। बिहार के प्रत्येक जिले में दर्जनों पर्यटन स्थल हैं, जिन्हें विकसित करने और उनका प्रचार करने की जरूरत है। अगर ढंग से सबकुछ किया जाए, तो बिहार में पर्यटकों की संख्या मौजूदा संख्या से 20 से 30 गुना तक बढ़ सकती है।
इसके अलावा कुछ अन्य मुद्दे हैं, जहां नीतीश सफल नहीं हो सके। अभी भी बिहार में जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय दर से अधिक है। शिशु मृत्यु दर भी अधिक है हालांकि इसमें गिरावट आयी है। मनरेगा में जमकर लूट खसोट जारी है। मनरेगा का काफी पैसा इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। राज्य भर में व्यवसायी जमकर कर चोरी कर रहे हैं। सरकार कुछ नहीं कर पा रही। गांवों की सड़कें आज भी कच्ची और बदहाल हैं। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में जबरदस्त धांधली है। मध्याह्न भोजन योजना और आंगनबाड़ी जमीन पर कम, कागज पर अधिक चल रही है। पुलिस आये दिन आम जनता पर लाठियां और गोलियां बरसा रही है। पल्स पोलियो अभियान लक्ष्य से पीछे है। अतिक्रमणकारियों के आगे सरकार असहाय नजर आ रही है। निर्माण कार्यों में खूब भ्रष्टाचार हो रहा है। गंगा के प्रदूषण को लेकर भी नीतीश सरकार कुछ नहीं कर पायी। गंदे जल बिना ट्रीटमेंट के उसमें गिराये जा रहे हैं। डाॅल्फिनों का शिकार भी जारी है। 
जब समाज के सबसे उपेक्षित जातियों को महादलित जाति बनाकर उनके लिए योजना बनायी जा रही थी, तब लगा था कि कुछ खास होगा। ऐसा नहीं हो सका। बाद में नीतीश ने बिल्कुल विवेकहीन की तरह दुसाध जाति को छोड़कर अन्य सभी अनुसूचित जातियों को महादलित ही मान लिया। अश्पृस्यों के जीवन में कोई खास परिवर्तन नहीं आ सका। यह भी एक बड़ी विफलता है। संपूर्ण स्वच्छता अभियान अधिकारियों की लापरवाही से मजाक बनकर रह गया है। हजारों पंचायतों में इस अभियान का श्रीगणेश तक नहीं हो सका है।
एसी-डीसी बिल से सरकार अभी तक पीछा नहीं छुड़ा पायी है। बियाडा को लेकर भी बदनामी उठानी पड़ी। सोलर लाईट घोटाला उजागर होने के बाद भी सरकार नहीं रोक पा रही है। राशन-किरासन में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है। विभिन्न परियोजनओं और बाढ़ से विस्थापित हुए लोगों के लिए आज तक पुनर्वास की समुचित व्यवस्था नहीं हो सकी। हजारों लोग पशुओं सा जीवन जी रहे हैं। बैंक स्वरोजगार के लिए ऋण नहीं दे रहे। स्वर्ण जयंती श्हरी रोजगार योजना, प्रधानमंत्री स्वरोजगार योजना, स्वर्ण जयंती ग्रामीण रोजगार योजना आदि के तहत अपवाद में ही किसी को ऋण मिला है। गांव से लेकर श्हर तक स्वच्छ पेयजल सपना बना हुआ है।
इन सबके बावजूद इसमें कोई शक नहीं कि नीतीश काफी मेहनत कर रहे हैं। परंतु, अपेक्षित परिणाम नहीं निकल रहा। इस सबका एक बड़ा कारण नीतीश सरकार में अयोग्य मंत्रियों और कामचोर प्रशासकों का होना भी है। दरअसल, मंत्रियों ने नीतीश की देखादेखी बड़े बोल बोलना तो सिख लिया, लेकिन उनकी तरह बड़ी सोच और बड़े कदम उठाना नहीं सिख पाये। वे परिवर्तन के लिए ठोस कदम उठाने के बजाय लफ्फाजी करके ही संतुष्ट हो जाते हैं। 
दूसरे राज्य का अफसरशाही भी व्यवस्था परिवर्तन में साथ नहीं दे रही। वे पहले वाली चाल से ही चल रहे हैं। इससे भी सरकार बदनाम हो रही है। खुद नीतीश ने भी कई बार माना है कि ब्यूरोक्रेसी उनकी नींद हराम किये हुए है। अफसरशाही कहीं भी सुधरने को तैयार नहीं। किसी बर्बाद हो चुके राज्य का पुननिर्माण करना किसी अकेले के बुते संभव नहीं है। काश! नीतीश के दो-चार सहयोगी उन्हीं के जैसे होते। यह सच है कि मौजूदा दौर में नीतीश का कोई विकल्प बिहार में नहीं है।

सुधीर

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