अभी पांच राज्यों में विधान सभा के चुनाव हुए। सभी राज्यों में वंशवाद का विकृत चेहरा देखने को मिला। यह कोई नहीं बात नहीं है। हमारे लोकतंत्र को धीरे-धीरे राजतंत्र के रूप में परिणत किया जा रहा है। कमोवेश सभी दल व नेता इसमें लगे हुए हैं। खासकर क्षेत्रीय दल तो बिल्कुल एक परिवार की पार्टी बनते जा रहे हैं। हालांकि इसकी शुरुआत काफी पहले पं. जवाहरलाल नेहरू ने कर दी थी।
नेहरू ने अपने प्रधानमंत्रीत्व काल में ही इंदिरा गांधी को कांग्रेस की अध्यक्ष बनवा दिया था। उसी समय डाॅ राम मनोहर लोहिया ने टिप्पणी की थी- लोग अभी तक सवाल उठाते थे कि नेहरू के बाद कौन। अब नेहरू ने खुद ही इसका जवाब दे दिया। डाॅ लोहिया की भविष्यवाणी पूरी तरह सही साबित हुई। कुछ ही दिनों बाद कई वरीय और अधिक योग्य नेताओं के बावजूद इंदिरा कांग्रेस का सर्वेसर्वा बन गयी। समय के साथ नेहरू का यह कदम कांग्रेस की परिपाटी बन गयी।
जब इंदिरा की हत्या हुई तो, राजनीति के नौसिखुए राजीव गांधी के अलावा और कोई विकल्प नजर नहीं आया। हालांकि इंदिरा इसी दिन के लिए राजीव को राजनीति में लायी थी क्योंकि उनके राजनीतिक वारिस संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी।
राजीव की हत्या के बाद चुंकि नेहरू-गांधी परिवार से कोई और राजनीति में आने को तैयार नहीं हुआ। लिहाजा अन्य लोगों ने कांग्रेस को संभाला। परंतु, जैसे ही सोनिया राजनीति में आने को तैयार हुई, बाकी सभी कांग्रेसियों ने किनारा पकड़ लिया। हालांकि इस दौरान पीए संगमा व शरद पवार आदि ने इसका विरोध करते हुए अलग पार्टी बनायी। परंतु, इनका विरोध वंशवाद के विरोध में नहीं था, बल्कि सोनिया के विदेशी मूल के होने के कारण था। गौरतलब है कि संगमा व पवार ने भी खुद ही वंशवाद को जारी रखा। संगमा की बेटी अगाथा संगमा और पवार की बेटी फिलहाल लोकसभा की सदस्य हैं। तय है, दोनों ही अपने पिता की विरासत संभालेंगी।
बहरहाल, सोनिया को पार्टी में लाने में उनके खुद से अधिक कांग्रेसियों ने जोर लगायी। कोई बड़ा से बड़ा कांग्रेसी नेता भी नेहरू-गांधी के अतिरिक्त किसी और को योग्य मान ही नहीं सकता। और इस तरह कभी राजनीति के अनाड़ी सोनिया आज भारत के प्रधान मंत्री को मनोनित करती हैं और फिर उन्हें संचालित भी। भारतीय लोकतंत्र में वंशवाद के कारण ही यह दिन आया कि प्रधानमंत्री एक महिला द्वारा मनोनित व्यक्ति बनता है। अब सोनिया अपनी राजनीतिक विरासत अपने पुत्र राहुल गांधी को सौंपने की तैयारी कर रही हैं।
आश्चर्य होता है कि कई ऐसे कांग्रेसी नेता हैं, जिनके सामने राहुल को बैठने की भी क्षमता नहीं है। परंतु, वे भी राहुल के सामने या तो दुम दबाये रहते हैं या फिर दुम हिलाते चलते हैं। यह भी बिना बताये जगहाजिर हो चुका है कि अगर कांग्रेस को अगले लोकसभा चुनाव में बहुमत मिलता है, तो गांधी परिवार से होने की एकमात्र योग्यता रखनेवाले राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। हालांकि पहले बिहार और अब यूपी के जनता ने यह संदेश दे दिया है कि वह राहुल को एक तमाशेबाज से अधिक नहीं मानती। वह कांग्रेसी नेताओं के युवराज हो सकते हैं, भारतीय जनता के नहीं।
फिर बात हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों की। इस चुनाव में भी कई वंश पूरे कुनबे के साथ चुनाव में उतरे। अब यह बताने की जरूरत नहीं कि नेहरू का शुरू किया वंशवाद का जहर धीरे-धीरे पूरी भारतीय राजनीति में फैलती चली गयी। पंजाब में लगातार दुबारा सत्ता में लौटने वाला अकाली दल भी एक खानदान की ही मिल्कियत है। प्रकाश सिंह बादल और उनके पुत्र सुखवीर सिंह बादल इसे संभालते हैं। पिता मुख्यमंत्री और पुत्र उप मुख्यमंत्री है।
उत्तर प्रदेश में भी मुलायम सिंह के खानदानी प्रोपर्टी समाजवादी पार्टी को बहुमत मिला। उनके पुत्र अखिलेश मुख्यमंत्री बने और उनके भाई मंत्री। इसमें जनता बहुत अधिक कुसूरवार नहीं है। उसके सामने विकल्प ही नहीं होते, तो वह करे क्या। हां, अगर राइट टू रिजेक्ट कानून बने तो शायद नयी बात देखने को मिल सकती है। वंशवाद का एक अजीब रूप मायावती ने दिखाया है। चुंकि उनकी अपनी कोई संतान है नहीं, लिहाजा उन्होंने किसी और को किसी काबिल ही नही समझा। बसपा अब वन मैन आर्मी की पार्टी है। मेरे ख्याल से यह भी एक वंशवाद का ही उदाहरण है कि वंश नहीं तो कोई और नहीं।
देश में अगर वंशवाद का रूप देखा जाए, तो हर कदम पर ऐसे चेहरे नजर आयेंगे। यूं लगता है, जैसे अब चुनावों में जनता के पास नेता चुनने के बजाय वंश चुनने का विकल्प होता है। कांग्रेस में तो खैर भरमार है ही। नेहरू चुंकि कांग्रेसियों के सर्वाधिक आदर्श पुरूष हैं। कांग्रेसी उनकी कोई और नीति मानें अथवा नहीं, लेकिन वंशवाद को खूब मानते हैं और अमल में लाते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पिता माधवराव सिंधिया की विरासत संभाल रहे हैं। सचिन पायलट अपने पिता राजेश पायलट की जगह पर हैं। जितेंद्र पसाद की खाली जगह उनके पुत्र जितिन प्रसाद संभाल रहे हैं। नागालैंड में राज्यपाल बनाये गये निखिल कुमार पहले बिहार के औरंगाबाद से सांसद हुआ करते थे। पहले वे दिल्ली पुलिस में थे, तब उनकी पत्नी श्यामा सिन्हा औरंगाबाद की सांसद थीं। उनसे पहले निखिल के पिता सत्येंद्र नारायण सिन्हा वहां से चुनाव लड़ते थे। उनसे पहले उनके पिता अनुग्रह नारायण सिन्हा की जगह थी। यह स्थिति कांग्रेस में दर्जनों बड़े नेताओं की है।
मुख्य विपक्षी पार्टी और खुद को दूसरों से अलग मानने वाली भाजपा भी वंशवाद के रंग में गहरे रंगती जा रही है। जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह अपने पिता के साथ सांसद हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र सांसद हैं। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर अपने बेटे के टिकट के लिए इस्तीफा देने लगे थे। आखिरकार उनके बेटे विवेक ठाकुर को विधान पार्षद बनाकर मामला संभाला गया। पटना के भाजपा विधायक नितिन नवीन अपने पिता स्व. नवीन प्रसाद सिन्हा की जगह भर रहे हैं। यूपी चुनाव में भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जिद कर अपने बेटे को टिकट दिलवाया। पटना साहिब से भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा काफी दिनों से अपनी पत्नी पूनम सिन्हा के लिए टिकट की जिद कर रहे हैं। संजय गांधी की विधवा मेनका की शरणस्थली भी भाजपा ही है। यहां तक तो कुछ जायज भी ठहराया जा सकता है। परंतु, भाजपा ने भी गांधी खानदान की महिमा गाते हुए उनके पुत्र वरूण गांधी को भी संसद बनवाया और फिर पार्टी महासचिव भी।
पहले ही कहा जा चुका है कि अधिकांश क्षेत्रीय दल किसी न किसी खानदान की मिल्कियत के रूप में काम कर रहे हैं। जम्मु कश्मीर में दो प्रमुख पार्टी हैं- नेशनल कांफ्रेंस और पिपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी। एक अब्दुल्ला परिवार की है और दूसरी सईद परिवार की। नेशनल कांफ्रेंस की स्थापना शेख अब्दुल्ला ने की थी। उनके देहांत के बाद अब फारूख अब्दुल्ला व उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला पार्टी चलाते हैं। उमर अभी जम्मु कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं और फारूख केंद्र में मंत्री हैं। विपक्षी दल पीडीपी के संस्थापक हैं मुफ्ती मुहम्मद सईद। अभी उनकी बेटी महबूबा सईद विपक्ष की नेता हैं।
यूपी की चर्चा हो चुकी है। वहां एक और पार्टी है लोकदल। इसके संस्थापक थे चैधरी चरण सिंह। अब उनके पुत्र चैधरी अजीत सिंह इस पार्टी के मालिक हैं। कर्नाटक में जनता दल एस पार्टी बनाकर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा अपने खानदान के नाम कर चुके हैं। तामिलनाडु डीएमके पर करूणानिधि और उनके कुनबे का कब्जा है। अन्ना डीएमके जयललिता की प्रोपर्टी है। अन्ना डीएमके की हालत भी बसपा की तरह है। आंध्र प्रदेश में पहले कांग्रेस के वाईएस रेड्डी मुख्यमंत्री थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र जगनमोहन ने खुद को स्वभाविक तौर पर मुख्यमंत्री माना और ऐसा न होने पर अलग पार्टी बना ली। एनटी रामाराव द्वारा बनायी गयी पार्टी तेलगुदेशम को अब उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू चलाते हैं।
हरियाणा में भी इसी तरह सभी पार्टियां किसी न किसी वंश के नाम है। महाराष्ट्र में शिवसेना बाल ठाकरे की कंपनी है। जब उन्होंने अपने बेटे उद्धव ठाकरे को अपनी कंपनी का उत्तराधिकारी बनाया तो इससे खफा होकर राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नामक अपनी कंपनी बना ली। वैसे शिवसेना और मनसे राजनीतिक दल कम गुंडों का गिरोह अधिक है। उड़िसा में नवीन पटनायक अपने पिता बीजू पटनायक की विरासत संभाल रहे हैं।
कई बुराइयों की चपेट में आने के बावजूद वंशवाद के जहर से वामपंथी दल बचे हुए हैं। हालांकि माकपा के महासचिव प्रकाश करात की पत्नी वृंदा करात भी उनके साथ सांसद हैं, लेकिन अपने दम से। दूसरी बात कि वह शादी के पहले से ही माकपा की बड़ी नेता थीं।
अब थोड़ी सी चर्चा बिहार के राजनीतिक वंशों की। अनुग्रह नारायण के खानदान की कहानी पहले ही कही जा चुकी है। सत्ताधारी दल जदयू ने खुद को इससे बचाने का प्रयास जरूर किया, लेकिन बहुत ईमानदारी से नहीं। बांका से दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल सिंह ने जब चुनाव में खड़ी हुई, तो जदयू ने पूरा समर्थन किया। विधानसभा चुनाव में जब मुन्ना शुक्ला को उनके चरित्र के कारण अयोग्य घोषित किया गया, तो जदयू ने उनकी पत्नी अन्नु शुक्ला को टिकट दिया। यह जानने के बावजूद कि अन्नु की जीतने पर वास्तविक विधायक मुन्ना ही रहेंगे। अभी नीतीश की सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री हैं नीतीश मिश्रा। ये मधुबनी के झंझारपुर से विधायक हैं। वहां इनसे अधिक समर्पित व समझदार जदयू कार्यकर्ता भी हैं, जिन्होंने लंबे वक्त तक पार्टी के लिए संघर्ष भी किया है। फिर भी पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा का बेटा होना सब पर भारी साबित हुआ। हालांकि जगन्नाथ कांग्रेस में रहते हुए मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन अब वे नीतीश कुमार का गुण गाते हैं और बदले में नीतीश उनके पुत्र को मंत्री बनाकर उन्हें एहसानमंद किये रहते हैं। जदयू से ही नागमणि और उनकी पत्नी सुचित्रा सिन्हा को टिकट मिलते रहा है। नागमणि जगदेव वर्मा के पुत्र हैं। इस बार बगावत के कारण उन्हें जदयू से टिकट नहीं मिल सका। नागमणि को बारी-बारी से कांग्रेस, राजद, जदयू टिकट दे चुके हैं। घोषी के जदयू सांसद जगदीश शर्मा ने पिछले विधानसभा में अपने बेटे राहुल शर्मा को पार्टी से टिकट न मिलने पर निर्दलीय खड़ा किया और जिताया भी। जदयू ने चंद दिनों के निलंबद के पश्चात जगदीश शर्मा को वापस पार्टी में शामिल कर लिया। उसी चुनाव में औरंगाबाद से जदयू सांसद सुशील कुमार सिंह के भाई ने राजद से चुनाव लड़ा और सुशील ने मदद की। काराकाट से जदयू सांसद महाबली सिंह कुशवाहा ने अपने बेटे को राजद के टिकट पर चुनाव लड़ाया।
रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी तो पूरी तरह से उनकी जागीर ही है। यहां तक कि सारे पद भी उन्हीं के परिवार के पास हैं। खुद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, दूसरे भाई प्रदेश अध्यक्ष और तीसरे भाई संसदीय दल के नेता। रामविलास के पुत्र चिराग को चुंकि हीरो बनने का शौक है, इसलिए वे चुनाव नहीं लड़ते। परंतु, उनका दर्जा लोजपा में स्टार प्रचारक का है।

अगर ऐसे उदाहरण बारीकी से देखा जाये, तो पूरा देश ही इसके चंगुल में फंसा नजर आता है। स्थिति यह हो गयी है कि दल के प्रति समर्पण और राजनीति की समझ के बजाय किसी बड़े नेता का बेटा होना सबसे बड़ी योग्यता बन गयी है। यह सोचना ही बेमानी लगता है कि कोई साधारण कार्यकर्ता अब किसी पार्टी में महत्वपूर्ण पद तक पहुंच सकता है। अब तो यही लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में जनता नहीं, वंश करेगा राज।
सुधीर
1 टिप्पणी:
बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री अनुग्रह नारायण सिंह आधुनिक बिहार के निर्माताओं में से एक थे। गांधी जी का जिन नेताओं ने चंपारण में साथ दिया था, उनमें बिहार विभूति अनुग्रह बाबू प्रमुख थे। उन्होंने कई बार जेल यातनाएं सहीं। इस तेजस्वी महापुरुष ने महात्मा गांधी एवं डा. राजेन्द्र प्रसाद के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थे। उनके पुत्र सत्येंद्र नारायण सिन्हा देश में अपनी सैद्धांतिक राजनीति के लिए चर्चित हुआ करते थे।स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के बाद देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में सत्येंद्र नारायण का नाम वज़नदार हो चुका था।उनकी पहचान, हैसियत व वजूद खुद कीरही।सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के प्रोत्साहन पर आपातकाल आन्दोलन से नितीश कुमार,नरेन्द्र सिंह,रामजतन सिन्हा,लालू प्रसाद यादव,रघुवंश प्रसाद सिंह,सुशिल कुमार मोदी,रामविलास पासवान और सुबोधकान्तसहाय सरीखें तात्कालीन युवा नेता निकले|
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