रविवार, 11 मई 2014

चुनाव में बाथे...

इन गलियों में खेला गया  था खूनी खेल
लोकसभा चुनाव का पारा मौसम के पारे से कई गुना ऊपर चढ़ा हुआ है। सारे दल जनता को विकास और न्याय की भरोसा दिलाने में जुटे हैं। हर नेता खुद को जनता का रहनुमा साबित करने में जुटा है। दूसरी ओर लक्ष्मणपुर-बाथे के लोग 17 वर्षों से न्याय का इंतजार कर रहे हैं। बात कीजिए तो पता चल जाएगा कि अब उन्हें न्याय और नेता दोनों पर ही विश्वास नहीं है।

जख्म नहीं नासूर है यह

मारे जाने वालों के नाम का बोर्ड अब ऐसा दिखता है।
17 साल पहले 01 दिसंबर 1997 की रात को बाथे मे जो हुआ, उसका दर्द आज भी महसूस किया जा सकता है। तब से कई चुनाव आए और गए, लेकिन बाथे का दर्द बढ़ते ही गया। पीड़ित परिवारों की आंखों में इंसाफ न मिलने की तड़प, गहरी मायूसी और विचलित कर देने वाला गुस्सा साफ दिखता है। जख्म होता तो भर जाता, लेकिन अदालत के फैसले ने उनके जख्म को नासूर बना दिया है। ऐसा नासूर, जिसकी टीस को लोग अब अपनी नियति मानने को मजबूर होने लगे हैं। 58 लोगों का कत्लेआम और एक को भी सजा नहीं।

किसी नेता का मुद्दा नहीं

बाथे, जहां 58 लोगों को इस गुनाह में मार दिया गया कि वे सवर्ण हिंदू नहींं थे
चुनाव में तमाम नए पुराने मुद्दे उठाए जा रहे हैं। लेकिन, बाथे किसी का मुद्दा नहीं है। अब तक किसी प्रत्याशी ने उन्हें इंसाफ दिलाने का झूठा आश्वासन तक नहीं दिया है। कोई नेता उन्हें इंसाफ दिलाने की बात नहीं करता। हालत यह है कि अधिकांश प्रत्याशी यहां वोट तक नहीं मांगने आते। शायद इसका कारण यह भी हो कि प्रत्याशियों में से जीत के दो प्रमुख दावेदार आरोपियों की जाति से हैं। नरसंहार में अपने भाई बीजेंद्र ठाकुर को खो चुके नरेंद्र ठाकुर कहते हैं कि उन्हें तो पता ही नहीं चला कि इस बार चुनाव प्रचार कैसे हो रहा है। वो कहते हैं कि कोई भी प्रत्याशी उनके गांव में नहीं आया। कभी-कभी उनके कार्यकर्ता (उन्होंने कहा चमचे) आए थे। लेकिन उन्हें इंसाफ दिलाने की बात किसी ने नहीं की। मानो नेताओं ने भी बाथे को उसके दुर्भाग्य पर आंसू बहाने को छोड़ दिया है। यहां लोगों को सबसे अधिक मायूसी तो नेताओं से ही है ।
माले ने मरने वालों की याद में यह स्मारक बनवाया है।

तीनों प्रमुख दल यहां नंगा हो जाते हैं

बिहार में तीन प्रमुख दल चुनाव लड़ रहे हैं। बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी। बीजेपी हिंदू रक्षा की बात करती है। बिहार में कई दंगे हुए। कभी भी 58 हिंदुओं की हत्या मुसलमानों ने नहीं की। लेकिन यहां हिंदुओं ने ही 58 हिंदुओं को रातोंरात मौत के घाट उतार दिया। अगर दो-चार हिंदुओं की हत्या किसी भी मुद्दे पर मुसलमानों के हाथों हो जाए तो संभवतः बीजेपी पूरे बिहार में दंगे करवा दे। लेकिन यहां 58 हिंदुओं की हत्या पर वह चुप है। यह भी ख्याल रखने वाली बात है कि हत्या के आरोपी उसी समुदाय के हैं जो सबसे अधिक हिंदू और हिंदुत्व की बात करता है। क्या बीजेपी के हिंदुत्व में 58 दलितों की सामूहिक हत्या बिल्कुल ही सामान्य बात है? वैसे हत्या के आरोपियों
बौध पासवान के परिवार के 7 लोग मारे गए थे
की जाति के ही बीजेपी के वरिष्ठ नेता डॉ सीपी ठाकुर को यह लगता है कि 58 चमार-दुसाध की हत्या के लिए किसी को सजा देने की क्या जरूरत है। सीपी ठाकुर ने अपनी मंशा छुपाई भी नहीं। जब आरोपियों को हाईकोर्ट से रिहाई के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जाने का फैसला किया तो सीपी ठाकुर ने इसे गलत बताया।
दूसरी पार्टी है बिहार में सत्तारूढ़ जेडीयू। न्याय के साथ विकास इसका नारा है। लेकिन यह नारा बाथे पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़कने के समान लगता है। न्याय का तो यह आलम है कि इसके शासन में सभी आरोपी बरी हो गए। आखिर किसके लिए न्याय की बात करती है सरकार? और विकास का हाल वही है जो दलितों के गांवों का होता है। बिजली नहीं, शुद्ध पेयजल की व्यवस्था नहीं। रोजगार का अवसर नहीं। ऊंची शिक्षा कौन कहे, हाई स्कूल तक नहीं।

तीसरा दल है आरजेडी। इसी के शासनकाल में नरसंहार हुआ था। यह सामाजिक न्याय की बात करता है। लेकिन यहां आकर पता चलता है कि इसके मुखिया को लोग क्यों थेथरोलॉजी का मास्टर कहते हैं। इस इलाके में एक और पार्टी सक्रिय है। भाकपा माले। उसने ही यहां मारे गए लोगों की स्मृति में शहीद स्मारक बनाया है। लेकिन लोगों का मानना है कि उसने भी उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए कुछ नहीं किया। माले भी केवल वोट के लिए हमदर्दी जताती है। बस इतना समझ लीजिए कि बाथे के हमाम में सभी दल और नेता...।

जेडीयू पर सबसे अधिक गुस्सा

यह महिला नरसंहार में छिपकर बच गई थी
लोगों का सबसे अधिक गुस्सा नीतीश सरकार पर है। आरोपियों को बरी होने के पीछे सभी लोग जेडीयू को कसूरवार मानते हैं। बात कीजिए तो सभी कहेंगे कि नीतीश ने आरोपियों को बचा लिया क्योंकि उन्हीं की सरकार है। बौध पासवान आरोप लगाते हैं कि सरकार और प्रशासन आरोपियों से मिला हुआ है। यही कारण है कि सभी आरोपी बरी हो गए। ऐसा मिलीभगत के बिना नहीं हो सकता था। बौध कहते हैं कि नीतीश कुमार पैसे पर बिक गए। आरोपी पैसे वाले हैं। उन्होंने सबको खरीद लिया। लोग साफ-साफ कहते हैं कि नीतीश कुमार ने आरोपियों को बचा लिया।
यह भी ख्याल रखने लायक बात है कि आरोपी संगठन रणवीर सेना से नेताओं की सांठगांठ की जांच कर रहे अमीरदास आयोग को नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाते ही भंग कर दिया था। वह भी ऐसे समय में जब आयोग अपनी रिपोर्ट देने की तैयारी कर रहा था। वैसे भी भागलपुर दंगे के गुनाहगारों को सजा दिलाने का श्रेय नीतीश कुमार खुद लेते हैं, तो फिर बाथे नरसंहार के आरोपियों को बरी करवाने के आरोप से वे कैसे बच सकते हैं?

इंसाफ की उम्मीद नहीं

बाथे के लोग इंसाफ की उम्मीद छोड़ चुके हैं। नरसंहार के वक्त छिपकर जान बचानेवाली मिंता देवी सवाल करती है कि जब सभी आरोपी घर आ चुके हैं तो अब इंसाफ कैसे मिलेगा। लगभग सभी लोग ऐसी ही बातें करते हैं। निचली अदालत में सजा पाए सभी आरोपियों को पटना हाई कोर्ट द्वारा बाइज्जत बरी कर दिए जाने पर लोग आवाक हैं। वृद्ध बौध पासवान के घर के सात लोगों की हत्या की गई थी। वे गुस्से में सबको गाली देते हैं। कहते हैं कि सरकार, प्रशासन और अदालतें सभी तो आरोपियों के ही हैं, तो फिर उन्हें इंसाफ कौन देगा और दिलाएगा।

अब भी दहशत बरकरार

नरसंहार के दौरान एक घर के पांच लोग मारे गए थे। उस परिवार का एक पांच साल का एक बच्चा किसी तरह बच गया था। अब वह 22 साल का युवा विमलेश कुमार है। उसके दो भाई, दो भाभियों और पिता की हत्या कर दी गई थी। विमलेश बताते हैं कि फिर से धमकियां मिलने लगी हैं। घटना को दुहराने की धमकी दी जा रही है। नरेंद्र ठाकुर भी इस बात को दुहराते हैं। मिंता देवी भी कहती हैं कि अब इंसाफ की उम्मीद कैसे करें, जब सभी आरोपी अपने घर लौट आए। मिंता कहती हैं कि अब तो आरोपियों के हौसले और बढ़ गए हैं। गांव में फिर से दहशत बढ़ने लगी है।

मीडिया पर भी गुस्सा

नई पीढ़ी की आंखों में अच्छे भविष्य के सपने
लोगों को मीडिया पर भी काफी गुस्सा है। काफी शिकायतें भी हैं और लोग मीडिया से उबे हुए भी हैं। नेताओं की तरह मीडिया ने उन्हें मायूस भी किया है। यही वजह है कि बातचीत में बाथे के लोग मीडियाकर्मियों के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। कई बार उन्हें यह भी भय होता है कि कहीं मीडियाकर्मी के नाम पर कोई आरोपियों की ओर जासूसी करने तो नहीं आया है। पीड़ित मीडियाकर्मियों पर भी बिके होने का आरोप लगाते हैं। नरेंद्र ठाकुर कहते हैं कि मीडिया उनकी बात को काट देता है और आरोपियों की बातों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है। वैसे उनका आरोप गलत भी नहीं है। सबने देखा है कि 2012 में कुख्यात ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के समय कैसे सभी समचार पत्र और चैनल कई दिनों तक लगातार अपनी छातियां पीट-पीटकर रूदन करते रहे थे। 

नई पीढ़ी में नई चेतना

नई पीढ़ी के बच्चे अपनी दुनिया को संवारने के सपने देख रहे हैं। उनकी आंखों में कुछ कर गुजरने और अपनेआप को साबित करने का हौसला है। बच्चे नौकरी पाने के लिए मिहनत कर रहे हैं। उनसे हत्याकांड के बारे में पूछने का हौसला ही नहीं हुआ।
सुधीर

1 टिप्पणी:

Flying Pro ने कहा…

kafi achha laga ......bathe jaise kand ko aap ne likha ......bahut badhiya .....