गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

दोस्त, जो सिर्फ यादों में हैं

मेरे वे दोस्त, जो ठीक से अभी जवान भी नहीं हुए थे, हमारा साथ छोड़कर हमेशा के लिए जा चुके हैं। हमारी जो गति कुछ दिनों या वर्षों के बाद होने वाली है, उन्होंने पहले ही प्राप्त कर ली। आज वे नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें हमेशा साथ हैं। उनकी दोस्ती तमाम स्वार्थों से परे और मासूमियत भरी थी।
पहला दोस्त। जलेश्वर कुमार। गंगाधारी उच्च विद्यालय देवकुंड का सहपाठी। घर था भिमली चक। तुम बहुत फुटबॉल के बहुत बढ़िया खिलाड़ी थे। हाई स्कूल के जमाने से ही तुम्हें दूर-दूर की टीमें अपनी ओर से खिलाने ले जाती थीं। मैच में तुम फारवर्ड की जगह से खेलते थे। काफी तेज-तर्रार। विरोधी खिलाड़ियों को संभलने तक गोल कर देने की क्षमता थी तुममे। जब स्कूल में दूसरी कक्षाओं से मैच होते थे, तो हम सबके तुम हीरो बन जाते थे।
मुझे याद है मैं एक रात तुम्हारे घर ठहरा भी था और भोजन भी तुम्हारे यहां ही किया था। उन दिनों अंतरउच्च विद्यालय मैच हो रहा था। हमारा विद्यालय गोह प्रखंड में था। इसलिए हम सब वहां गए थे। मैं हालांकि थोड़ा सा भी फुटबॉल नहीं खेलता था, लेकिन मैं भी तुम सबके साथ गया था। शिक्षक में तपेश्वर बाबू साथ रहते थे। स्कूल से पुनपुन नदी पार करके गोह जाना होता था। कई दिनों तक मुकाबला हुआ था और हमारे स्कूल की टीम ने कई मुकाबले जीते भी थे। सभी जीतों में तुम्हारा बड़ा योगदान रहा था। उन्हीं दिनों एक बार मैच समाप्त होते-होते काफी देर हो गई और रात में तुम्हारे घर मैं ठहरा था।
तुमने मेरी काफी आवभगत की थी। किसी अतिथि की तरह तुमने मेरा ख्याल रखा था। तुम्हारे आंगन में लजीज दाल, भात, सब्जी और भुजिया खाना आज भी याद है। रात में सोते समय दूध भी पीने को मिला था। हम विद्यालय छोड़ने तक हमेशा अच्छे दोस्त बने रहे।
हाई स्कूल से उत्तीर्ण होने के बाद फिर हमलोग नहीं मिल सके। और अचानक किसी दोस्त से बात करते हुए तुम्हारे बारे में पूछा तो पता चला कि तुम हमारा साथ छोड़ चुके हो। हमेशा के लिए।
मैं दुबारा कभी जलेश्वर के घर नहीं गया। जब उसकी मौत की सूचना मिली तब सोचा था। लेकिन फिर लगा कि मैं उसके घर जाकर उसके परिजनों के उन घावों को फिर से हरा कर दूंगा, जिन्हें वक्त के मरहम ने कुछ ठीक कर दिया होगा।
दूसरा दोस्त-रंजीत कुमार। मेरे बगल के गांव बंधु विगहा का रहने वाला। तुम्हारे साथ तो लंबा याराना रहा था। अगल-बगल के गांव में रहने के कारण मध्य विद्यालय से ही पहचान थी। हाई स्कूल में तुमने भी देवकुंड में ही नामांकन करवाया था। रोज साथ आते-जाते दोस्ती गहरी होती चली गई। हाई स्कूल में हमने कितनी फिल्में एक साथ देखी थी। ढेरों फिल्में एक-दूसरे को अपने पैसे से दिखाईं। हाई स्कूल के समय जिन दोस्तों की शादियां हुईं, उनमें से अधिकांश की शादी में हमलोग एक साथ शामिल होते थे। हमारी बातचीत में प्रायः दो ही मुद्दे हुआ करते थे- पहला फिल्म और दूसरा फिल्मी गाने।
मुझे याद है जब तुम्हारी प्रेमिका की शादी हो रही थी और तुम लगातार रोए जा रहे थे। नाचने वालियों को पैसे देकर बार-बार जीता था जिसके लिए.... गाने की फरमाइश कर रहे थे और सुन रहे थे। काफी घनिष्ठता थी हम दोनों में।
फिर तुम्हारी शादी की खबर मिली। मैं तुम्हारी शादी में शामिल नहीं हुआ था। तुमने मुझे बुलाया ही नहीं था। और फिर खबर मिली तुम्हारी आत्महत्या की।
आज भी समझ में नहीं आता कि रंजीत जैसा जिंदादिल लड़का आत्महत्या कैसे कर सकता है।
तीसरा दोस्त मुंशी। मेरे ही गांव बिरहारा का। प्राथमिक विद्यालय से मध्य विद्यालय तक तुम मेरे सहपाठी रहे। और हमारी दोस्ती सिर्फ स्कूल की नहीं थी। हम तो साथ में गांव में खेलते थे और लड़ते भी थे। बांके के बगान में कितनी बार एली (कांच की गोलियां) का मुकाबला हमने किया पता नहीं। तुम अपनी छोटी बहन को गोद में लिए रहते थे और मैं अपनी छोटी बहन को। आज यह याद करना कितना अजीब लगता है कि बहनों को खिलाने के बहाने हमलोगों को एली खेलने का मौका मिलता था। और फिर एली से तो हमलोगों ने जुआ भी खेला था। कई बार। रेंड़ी से और कौड़ियों से। कभी कागा-दुरुच करके, कभी धंसा के। हमने साथ में गिल्ली-डंडा भी काफी खेला था। और एक खेल- वह है ताश। गांव के रिश्ते से तुम मेरे दादा थे।
पढ़ाई-लिखाई में तुम हमसे हमेशा मदद लेते थे। मैं तुमसे कुछ पढ़ने में तेज था। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मेरा दिमाग तुमसे तेज था। कारण सिर्फ यह था कि अपेक्षाकृत कुछ धनी घर का होने के कारण मुझ पर कोई काम करने का दबाव नहीं था और पढ़ने-लिखने के लिए काफी वक्त मिलता था। घर पर पढ़ाने के लिए लोग मौजूद थे। तमाम सुविधाएं थीं। दूसरी ओर तुम मध्य विद्यालय के जमाने से ही कमाई की चिंता में लगे रहते थे। कहा जा सकता है कि गरीब परिवार के बच्चे 10-12 साल के होते-होते स्वालंबी बनने का प्रयास करने लगते हैं। और मैं भी यूं ही मदद तो करता नहीं था। बदले में तुम और तुम्हारे जैसे और दोस्त मुझे फिल्मों की कहानियां सुनाया करते थे।
मुंशी, मुझे याद है स्कूल से छुट्टी के बाद तुम ईंट बनाते थे या इसी तरह कोई काम में लग जाते थे। मैं तुम्हें देखता था ईंट के लिए मिट्टी तैयार करते और फिर सांचे से ईंट बनाते हुए। मैंने भी तुम्हारी देख-रेख में एक दिन दो-तीन ईंट सांचे से बनाए थे। तुमने मेरी ईंट की तारीफ की थी और बताया था कि नए लोग अच्छा ईंट बनाते हैं क्योंकि धीरे-धीरे बनाते हैं और मिट्टी सांचे में अच्छी तरह बैठती है, जबकि पुराने लोग जल्दी-जल्दी ईंट बनाते हैं।
मुंशी, तुमने मुझे महुआ का लाटा खिलाया था। एक या दो बार। तेरे घर का बना हुआ। जिंदगी में मैंने और कभी लाटा नहीं खाया। कोई तुम सा दोस्त ही नहीं मिला।
एक बार ऐसी भी स्थिति आई कि मुझे काम करना जरूरी हो गया। तुम उस वक्त तक दिल्ली में काम करने लगे थे। तुम जब छुट्टी में घर आए थे तो मेरे पापा ने घर बुलाकर तुमसे मुझे भी अपने साथ दिल्ली ले जाने को कहा था। लेकिन मैं कुछ कारणों से नहीं जा सका।
फिर तुमसे मिलना कम होने लगा। हम दोनों ही गांव छोड़ चुके थे। वर्ष बीते, फिर दशक बीत गए। कभी-कभार हमारी भेंट होती थी।
अचानक पिछले साल खबर मिली तुम्हारी बीमारी के बारे में। तुम्हें पटना लाया गया। पता चला तुम एचआईवी पॉजीटिव हो। तुम अंतिम स्टेज में थे। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया। मैं तुमसे मिलता इससे पहले तुम वापस घर जा चुके थे। दो-चार दिनों के बाद ही तुम्हारी मृत्यु की सूचना मिल गई। दिल्ली ने तुम्हें जीने का सहारा दिया और फिर मौत की सौगात भी।
मेरा चौथा दोस्त सुलेल। मेरे घर के ठीक पीछे का घर। गांव का सबसे गरीब परिवार। गरीबी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि आज तक न तो इस परिवार के पास मुखिया और पंचायत सेवक को देने के लिए दो हजार रुपए हुए और न आज तक इंदिरा आवास का लाभ मिल सका।
सुलेल, तुम सबसे गरीब थे। प्राथमिक विद्यालय में तो तुम मेरे साथ पढ़े लेकिन उसके बाद गरीबी के कारण आगे नहीं पढ़ सके। मुझे तुमने बचपन में बताया था कि तुम आम तौर पर दारा खाकर पढ़ने आते हो। उससे पहले तक मैं समझता था कि दारा सिर्फ पशुओं का ही आहार है। लेकिन वह भी तुम्हें हमेशा कहां मिलता था। तुम कई बार खाली पेट पढ़ने आते थे। कई बार सिर्फ उबले हुए आलू खाकर। मैली गंजी और अपने पिता का अंडर बियर पहनकर तुम पढ़ने आते थे। कभी कभार तुम जो शर्ट पहनते थे वह गंदी तो होती ही थी, कई जगह से फटी भी रहती थी। बटन भी एक-दो ही रहते थे। सर से पांव तक तुम कुपोषण की पाठशाला थे।
जैसे हिंदू समाज में नीची से नीची जातियां भी अपने से नीची जातियों के साथ भेदभाव करती हैं यही हाल आर्थिक मोर्चे पर भी है। जो गरीब अमीरों द्वारा शोषण की बात करते हैं वे भी अपने से गरीब को दबाते रहते हैं। यह सुलेल और उसके परिवार से साबित किया जा सकता है।
तुम्हारे साथ खेलने के दौरान हम सब दोस्त बेइमानी करते थे। तुम्हारा उपहास करते थे। तुम्हारे पिता के नाम गामा होने के कारण तुम्हारा नाम गमाड़ी रख दिया गया था। बांके का बगान की मिट्टी और तमाम हमउम्र दोस्त इसके गवाह हैं। एली खेलने में बेइमानी, जुआ खेलने में बेइमानी। और तुम्हें सहना पड़ता था। याद है न- हमलोग दावं पर लगाते थे एली, रेंड़ी और कई बार पैसे भी। तुम प्रायः एली सूद पर लेते थे और उस सूद से लदे रहते थे। और सूद होता था- परसों तक न देबे तब रोज दोगुना।
बड़े हुए तो तुम काम करने दिल्ली चले गए। घर की हालत कुछ सुधरी। फिर तुम घर पर ही रहने लगे। कुछ साल बाद पता चला कि तुम्हें टीबी है। मुझे याद है तुम्हें इलाज के लिए कहीं बाहर जाना था। मैं मोटरसाइकिल से पटना के लिए निकलनेवाला था तभी तुम्हारे पिता आए और पक्की सड़क तक पहुंचा देने को कहा। मैं काफी देर तक इंतजार करता रहा लेकिन तुम नहीं आ सके। फिर मैं चला निकल गया। मुझे हमेशा अफसोस रहेगा कि मैं तुमसे मिला क्यों नहीं। उसके बाद तुम्हारे बारे में जो सूचना मिली वह थी तुम्हारी मौत की।
मेरे दोस्तों ! आज तुम सब नहीं हो। लेकिन तुम्हारी यादें ताउम्र रहेंगी। सोचता हूं, जिंदगी क्या है। जिया हुआ पल। इस हिसाब से तुम सब मेरी जिंदगी के अभिन्न हिस्से हो।
तुम सबको मैं अंतिम पलों में भी अलविदा नहीं कह सका। अब कहूंगा भी नहीं क्योंकि तुम सब मेरे दिल में हो और यहां से कभी विदा नहीं होओगे, जब तक है जान।
सुधीर

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

सरस्वती माता का वरदान

सरस्वती पूजा बीत गई. लेकिन इस मायने में यादगार रहेगी कि इस वर्ष विद्या और बुद्धि की देवी सरस्वती ने अपने भक्तों को खूब आशीर्वाद दिया. भक्तों ने भी सरस्वती की कृपा का जमकर इस्तेमाल किया. यूं तो इस कृपा का इस्तेमाल प्रति वर्ष पहले से ही होने लगता है. चंदा वसूली से सरस्वती की दी बुद्धि के लक्षण दिखने लगते हैं. मनामाने ढंग से चंदा का रसीद काटना और गुंडे के स्टाइल में वसूली करना. हजार रुपए के पूजा के लिए भी 25-50 हजार रुपए वसूले जाते हैं. यह वसूली वहां अधिक होती है,जहां दूसरे जगह के दुकानदार या व्यवसायी होते हैं. उन गांवों में भी इसे खूब देखा जा सकता है, जहां से होकर गाड़ियां गुजरती हैं. यहां वरिष्ठ पत्रकार श्री पुष्यमित्र के फेसबुक का एक कथन मौजूं होगा कि सरस्वती पूजा के लिए चंदा करने वालों पर मां सरस्वती की कृपा हमेशा सबसे कम होती है. हालांकि मेरा मानना है कि कृपा कम नहीं होती, बल्कि इसी तरह की कृपा ही होती है. आखिर कोई जब पढ़ाई-लिखाई में तेज होता है, उसपर मां सरस्वती की कृपा कही जाती है. फिर विकृत बुद्धि वालों की जिम्मेदारी से देवी सरस्वती कैसे बच सकती हैं. आखिर वही तो बुद्धि की देवी हैं. वैसे चंदे वाली कृपा तो हमेशा ही मां सरस्वती अपने भक्तों पर रखती है. इस साल मां ने जी खोलकर कृपा दी और भक्तों ने जमकर इस्तेमाल भी किया.
मधेपुरा में प्रतिमा विसर्जन के दौरान गोलियां चलने लगीं, मां सरस्वती के सामने ही. गोली एक चूड़ियां बेचनेवाली महिला को लगी और उसकी मौत हो गई. कुछ गिरफ्तार होकर जेल गए, कई फरार चल रहे हैं. भक्तों की पूजा सफल हुई.
भागलपुर के कहलगांव में मूर्ति विसर्जन के समय शराब पीकर छात्रों ने अपने एक सहपाठी को जिंदा जलाने का प्रयास किया. फिलहाल वह भागलपुर के जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहा है.
पटना सिटी में भी इसी तरह माता ने विसर्जन तक भक्तों की पुकार सुनकर बुद्धि दे दी. विसर्जन के दौरान दो गुट आपस में भिड़ गए. एक की जान चली गई.
पटना में प्रतिमा विसर्जन के समय पटना विश्वविद्यालय और एनआईटी के छात्रों ने भी माता की कृपा का जमकर इस्तेमाल किया. शराब के नशे में धुत छात्रों ने जमकर मारपीट की. वे निकले ही थे हाथों में लाठी-डंडे लेकर. एनआईटी मोड़ पर कृपा का उपयोग करने लगे. दोनों ही गुट सरस्वती भक्तों का ही था. पुलिस पहुंची तो पुलिस से भी भिड़ गए. हद तो यह कि छात्रों को माता ने बमबारी करने की भी बुद्धि दे दी. आखिर बम हर कोई थोड़े ही बना सकता है. माता की कृपा से कम से कम बम बनाना तो सिख ही गए. मूर्ति विसर्जन के समय माता को उसके निर्माण और इस्तेमाल का नमूना भी दिखाया. माता भक्तों से संतुष्ट होकर विदा हुईं.
एनआईटी के पांच भक्तों को मां सरस्वती ने जेल जाने का सफल वरदान दिया. पटना विवि के भी कई छात्रों को यह वरदान मिल चुका है. पुलिस वरदान को सफल बनाने में जुटी है.
झारखंड के कोडरमा में एक घर के लोग माता सरस्वती की आराधना में लीन थे. मूर्ति विसर्जन के जुलूस में शामिल माता की भक्ति में घर की सुध भी भूल गए थे. घर में अचानक आग लग गई और दो बच्चे जलकर मर गए.
पूर्णिया में भक्तों को विसर्जन से पहले ही वरदान मिल गया. माता से भक्तों ने सदबुद्धि की प्रार्थना की. माता ने ऐसी बुद्धि दी कि दो गुटों में पूजा के दौरान झड़प हो गई. एक भक्त को बाकी भक्तों की भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला. एक अन्य की आंख में गहरी चोट आई है.
ऐसा नहीं है कि इतनी ही घटनाएं घटीं. यह तो चंद उदाहरण हैं जो मीडिया में आ सके. अगर सरस्वती माता की कृपा के आंकड़े इकट्ठे किये जाएं, तो गिनने वाला शायद गिनती भूल जाए.
चलते-चलते एक निजी जीवन से जुडी़ घटना बता दूं. तब मैं श्री बाणभट्ट मध्य विद्यालय बंधु विगहा में आठवीं कक्षा में पढ़ता था. पूजा के अगले दिन दोपहर में मेरे एक शिक्षक ने मुझे आरती की तैयारी करने को कहा. पूजा कक्ष में जाते ही देखा की पूरी मूर्ति काली हो चुकी है. आग लगने से आस-पास रखे काफी सामान जल चुके हैं. मैंने तुरंत शिक्षकों को सूचना दी. हुआ यह था कि मूर्ति को अधिक सजाने के लिए कागज की माला और साज का खूब इस्तेमाल किया जाता था. किसी सरस्वती के कृपाप्राप्त भक्त ने मूर्ति में कहीं अगरबती जलाकर खोंस दिया था. उससे आग लग गई थी. मुझे उस दिन भी पता नहीं चला कि पूरी दुनिया पर कृपा करनेवाली मांता खुद में लगी आग भी नहीं बुझा सकी.
मित्रों! सभी जानते हैं कि इधर-उधर के कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो सरस्वती पूजा मुख्य रूप से भारत में ही होती है. न जाने कितनी पीढ़ियों से आराधना करते चले आ रहे हैं. लेकिन वरदान किसे मिलता है. तमाम अविष्कार उन देशों के वैज्ञानिक कर रहे हैं, जिन्होंने कभी सरस्वती का नाम भी न सुना होगा. हम अच्छी शिक्षा के लिए उन्हीं देशों पर आश्रित हैं. बड़े लेखक उन देशों में पैदा हो रहे हैं. तमाम तरह की दवाइयां और टीके उन्हीं देशों के विद्वान बना रहे हैं. तमाम नोबेल पुरस्कार उन देशों के वैज्ञानिकों और विद्वानों को मिलते हैं. हम जिन चीजों का रात-दिन इस्तेमाल करते हैं, उनका अविष्कार करने की बुद्धि हमें कभी नहीं मिली. तमाम तकनीकों के लिए हम विदेशों पर आश्रित हैं.
लेकिन तमाम बातें जानने के बावजूद असर तो होगा नहीं. तो अपनी अक्ल में ताला लगाकर प्रेम से बोलिये विद्या-बुद्धि दात्री माता सरस्वती की जय.

सुधीर