वर्ण व्यवस्था की सबसे मुख्य शर्तें हैं- जातिवाद और उच्च-नीच की भावना, मूर्तिपूजा, मुहूर्त व मंत्र। छठ में ये सारी भावनाएं कमोबेश लुप्त हो जातीं हैं। ये सारी बातें छठ की तैयारी से ही दिखने लगतीं हैं।

हालांकि अब पूंजीवाद इसका रूप बिगाड़ने की कोशिश कर रहा है। लोग पीतल, सोना, चांदी व कांसा के सूप से अर्घ्य देने लगे हैं। फिर भी पूंजीवाद पर छठ की मूल भावना अभी तक भारी पड़ रही है।
जातिवाद पर छठ जितना चोट करता है, उतना कोई दूसरा पर्व नहीं। यहां तक कि कई मायनों में किसी भी समाज सुधारक आंदोलन से भी अधिक। अघ्र्य स्थल पर किसी को किसी की जाति से कोई मतलब नहीं होता। समानता यहां तक बढ़ जाती है कि अगर कोई महादलित व्रती भी दंडवत कर रहा होता है तो सवर्ण समुदाय के लोग भी उसका पैर छूते हैं।
अब मूर्तिपूजा की बात। बिना मूर्ति के कोई पूजा फिलहाल संभव नहीं है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने भले ही कहा हो कि मूर्तिपूजा हिंदू धर्म के विरूद्ध है, लेकिन उनका यह उपदेश चंद आर्य समाजियों तक ही सिमटा रह गया। हिंदुओं के सारे पर्व मूर्ति के साथ ही संभव हैं। परंतु, छठ इसका अपवाद है। इसमें कोई प्रतिमा की जरूरत नहीं होती। हाल के वर्षों में इसका भी रूप कुछ लोग बिगाड़ने में लग गये हैं। सूर्य की मूर्ति बनायी जाने लगी है लेकिन यह छठ की मूल भावना के विरूद्ध है। आज भी सामान्य जन बिना मूर्ति के ही छठ की पूजा करते हैं। यहां तक इसके लिए किसी मंदिर की जरूरत भी नहीं पड़ती।
कुछ जगहों पर सूर्य मंदिर हैं जहां लोग अघ्र्य देकर पूजा करते हैं। फिर भी, अधिसंख्य जगहों पर लोग सूर्य को अघ्र्य देने के बाद पूजा खत्म कर देते हैं। पटना में ही लाखों की संख्या में लोग गंगा के घाटों पर और अन्यत्र जगहांें पर अघ्र्य देते हैं। उन्हें किसी मंदिर की जरूरत नहीं पड़ती। अब कमोबेश पूरे भारत में छठ मनाया जा रहा है। एकाध जगह को छोड़कर पूरे देश में सूर्य उपासना का यह पर्व बिना मंदिर के ही पूरा किया जाता है।
अब आते हैं पुरोहितवाद पर। पुरोहितों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि उनके बिना कोई पूजा हो ही नहीं सकती। मंत्रों पर तो उनका सदियों से अलिखित पेटेंट है। आम जनता के लिए तो वेद मंत्रों को पढ़ना क्या, सुनना भी घोर अपराध घोषित कर दिया गया। परंतु, छठ यहां भी वर्ण व्यवस्था को चुनौती देते हुए नजर आता है। छठ में किसी पुरोहित की जरूरत नहीं होती। इसे शुरू करने से पूर्णाहुति तक अमीर-गरीब सभी खुद ही पूरा कर लेते हैं।
छठ के लिए किसी मुहूर्त का भी इंतजार नहीं होता। सभी व्रती अपने हिसाब से सूर्य ढलने के समय प्रथम अघ्र्य और अगले दिन सूर्य उगने के समय दूसरा अघ्र्य देकर व्रत पूरा करते हैं।
एक और खास बात। इस पर्व में सहकारिता की भावना जितनी दिखती है, वह अन्यत्र कहीं नहीं दिखती। सभी लोग बिना किसी सरकारी मदद के पूरे गांव व शहर को साफ-सुथरा बना डालते हैं। गंदगी फैलाने वाले लोगों का विवेक भी इस दिन जग जाता है।
पुजारियों के बनाये लगभग सभी पर्वों में लोग मांस व दारू का सेवन करते हैं। कई त्योहारों में तो जुआ आदि का भी खूब प्रचलन है। छठ इन सभी बुराइयों से अछूता है। यहां तक कि जो व्यक्ति बिना शराब व मांस के नहीं रह सकता, वह भी छठ के दिनों में शराब व मांस छोड़ देता है। एक बहुत बड़ी बात यह देखी गयी है कि छठ में अपराध का ग्राफ भी काफी घट जाता है। ऐसा किसी भी अन्य पर्व में नहीं होता।
पुजारियों के किसी भी पर्व में पुत्र की कामना तो की जाती है, लेकिन पुत्री की नहीं। छठ यहां भी अलग दिखता है। छठ में व्रती पुत्र और पुत्री दोनों के लिए ही अपने गीतों के माध्यम से प्रार्थना करते हैं। अन्य पर्वों के विपरीत यह पर्व पती पत्नी दोनों ही मिलकर करते हैं।
ऐसा नहीं कि इन सबसे छठ बहुत महान परंपरा हो गयी। इस आलेख का मुख्य मकसद यह है कि छठ हिंदुओं का एकमात्र बड़ा त्यौहार है, जो वर्ण व्यवस्था की तमाम बुराइयों को चुनौती देता है। वैसे इसमें भी धर्म के नाम पर विवेकहीनता की कोई कमी नहीं।
सूर्य को दीया दिखाना एक मुहावरा है, जिसका अर्थ ही है फिजूल का काम करना। इस पर्व के मुख्य अनुष्ठान में यही मूर्खता की जाती है अर्थात् सूर्य को दीया दिखाया जाता है। फिर भी पुआल व मिट्टी की मूर्ति के आगे आरती गाने से यह अधिक विवकेशील है। सूर्य पूजा की परंपरा उस समय शुरू हुई, जब लोगों को यह पता नहीं था कि सूर्य एक तारा है और तारा हर हाल में निर्जीव ही होता है। आप पूजा करें, न करें, उसपर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
एक और बुराई इसमें दिखती है। बहुधा स्त्रियां सिर्फ एक धोती पहनकर नहाती है और फिर उसी हालत में अघ्र्य देने लगती हैं। धोती भिंगने के बाद एकदम पारदर्शी हो जाती है। फिर वहां भक्ति कम और अश्लीलता अधिक दिखने लगती है। यह माना जा सकता है कि जिस समय इस पर्व की परंपरा शुरू हुई होगी, उस समय स्त्रियां एक कपड़ा ही पहनती थी, लेकिन अब वह बेवकूफी और अंधविश्वास के अलावा कुछ और नहीं माना जा सकता।
दूसरी ओर पुरोहितवर्ग इसे भी धर्मान्धता के चंगुल में लाने की कोशिश कर रहा है। छठ को लेकर कई कहानियां गढ़ी जाने लगी है। शास्त्रों में छठ की महिमा खोजी जा रही है। कुल मकसद यह है कि इसे किसी भी तरह से पुजारियों की कथित श्रेष्ठता से जोड़ दिया जाए।
सुधीर
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