अन्ना के आंदोलन के बाद गांधी व गांधीवाद को लेकर कांग्रेसी नेताओं ने अजीबोगरीब बयान देते रहे। यह अभी तक जारी है। कांग्रेसी नेताओं का उटपटांग बयान हैरान नहीं करता है। यह सबको पता है कि कांग्रेस के लिए गांधी वोट और राजनीति से अधिक मायने नहीं रखते। गांधी के सपने को तोड़ने की जो शुरुआत नेहरू ने 1946 में शुरू किया था, वह परंपरा आज तक कांग्रसियों ने जारी रखी। दक्षिणपंथियों ने गांधी को 30 जनवरी 1948 को मारा लेकिन कांग्रेसी उन्हें प्रतिदिन मारते हैं। ऐसे में गांधी को लेकर कांग्रेसियों का उल्टा-सीधा बयान कोई खास बात नहीं है। परंतु, कई प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक कहलाने वाले महानुभावों ने भी गांधी को लेकर बेबुनियाद या यूं कहें कि गांधीवाद से बिल्कुल उल्टा बयान दिया। हालांकि यह मोटे तौर पर अन्ना के अनशन के साथ ही खत्म हो गया था लेकिन गांधी जयंती के साथ ही फिर से अन्ना पर गांधी को लेकर निशाना साधा जाने लगा।
गांधीवाद को लेकर गांधीवादियों ने अन्ना पर सबसे अधिक निशाना यह कहकर साधा कि गांधी ने हमेशा प्रायश्चित या फिर आत्मशुद्धि के लिए अनशन किया था। अन्ना हजारे सरकार पर दबाव डालने के लिए अनशन कर रहे हैं। यह गांधीवाद न होकर पूरी तरह ब्लैकमेलिंग है। बाद में ऐसे बयानों को कांग्रेसी नेता रट लगाते रहे।
गांधीवादी कभी गांधी की किताब निकालकर पूना पैक्ट पढ़ें। अम्बेदकर की जीवनी में भी यह मिल जाएगा। पूना पैक्ट काफी चर्चित मामला रहा था और यह प्रसंग दर्जनों नहीं सैकड़ों किताबों में दर्ज है। गांधी ने पूना पैक्ट के मामले में अपने मनमुताबिक कानून बनवाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया था।
बात 1932 की है। गांधी उस समय यरवदा जेल में बंद थे। सवर्ण हिंदू अस्पृश्यों को सिर्फ वोट के लिए हिंदू मानते थे। बाकी समय वे पशु से भी गये गुजरे माने जाते थे। ब्रिटिश सरकार ने ऐसा निर्णय लिया था जिसके तहत अस्पृश्यों के साथ-साथ मुस्लिम, सिक्ख और इसाइयों के लिए अलग-अलग स्वतंत्र मतदार संघ तथा सुरक्षित स्थानों दोनों अधिकार स्वीकृत किये गये थे। इस निर्णय से देश में सवर्णों की स्थिति अल्पसंख्यक हो जाने की नौबत आ गयी थी, जो कि अभी तक हिंदू के नाम पर अस्पृश्यों की संख्या के कारण बहुसंख्यक थे। गांधी ने अस्पृश्यों के लिए अलग से स्वतंत्र मतदार संघ के खिलाफ आमरण अनशन की घोषणा कर दी। उस समय अस्पृश्यों के प्रतिनिधि डा. भीमराव अम्बेदकर थे। सभी बड़े हिंदू नेता राष्ट्रीयता के नाम पर डा. अम्बेदकर से अपील करने लगे। मामला समय के साथ गंभीर होने लगा। डा. अम्बेदकर को उस समय देशद्रोही तक की संज्ञा दे दी गयी। उन पर चारों ओर से दबाव डाला जाने लगा। उनकी जान पर बन आयी। आखिरकार अम्बेदकर को समझौता करना पड़ा। 24 सितंबर 1932 को एग्रीमेंट किया गया, जिसमें हिंदुओं की ओर से पं. मदनमोहन मालवीय ने और अस्पृश्यों की ओर से डा. अम्बेदकर ने हस्ताक्षर किया। इसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है।
अब कोई बताए कि इस अनशन में गांधी का यह अनशन किस प्रायश्चित के लिए था। यह तो अपने मनमुताबिक कानून बनवाने के लिए था। वह भी देश के भला के लिए नहीं बल्कि सवर्णों की भलाई के लिए।
गांधी का अनशन पर एक और नजरिया देखें। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है। यह अहमदाबाद में मजदूरों के आंदोलन से जुड़ा हुआ है। मजदूर अपनी तनख्वाह बढ़ाना चाहते थे। गांधी ने उन्हें हड़ताल की सलाह दी। अठारह दिन तक गरीब मजदूर हड़ताल करते रहे लेकिन कोई फैसला नहीं हो सका। अगले दिन से गांधी ने मजदूरों की मांग के समर्थन में अनशन शुरू कर दिया। यह अनशन तीन दिन तक चला और मिल मालिक समझौता के लिए तैयार हो गये। गांधी का यह अनशन भी किसी प्रायश्चित के लिए नहीं बल्कि पूरी तरह से मिल मालिकों पर दबाव बनाकर अपनी मांग मनवाने के लिए था। गांधी ने इस अनशन में एक दोष बताया है लेकिन दबाव बनाना नहीं बल्कि यह कि मिल मालिकों के साथ उनके मधुर संबंध थे।
गांधीवादियों को अन्ना से दूसरी बार तब घोर आपत्ति हुई थी जब अन्ना ने वोट फोर कैश मामले के गुनाहगारों को फांसी पर चढ़ा देने की बात कही। कथित गांधीवादियों का कहना था कि कोई गांधीवादी विचारधारा का व्यक्ति किसी को फांसी पर चढ़ा देने का बयान दे ही नहीं सकता। अन्ना के गांधीवादी होने पर सवाल उठाये जाने लगे।
याद कीजिए नेहरू के उस बयान को, जब उन्होंने कहा था कि भ्रष्टाचारियों को लैंप पोस्ट से लटका दिया जाएगा, अर्थात सरेआम फांसी दी जाएगी। यह तो तालिबानी बयान था और अन्ना के बयान से कई गुना अधिक विभत्स भी। तो क्या गांधीवादी और कांग्रेसी मानते हैं कि नेहरू गांधीवादी से पूरी तरह दूर जा चुके थे? नेहरू का गांधीवाद से कोई संबंध नहीं था?
अन्ना को आरएसएस के समर्थन पर कांग्रेसी सवाल उठाते हैं। वैसे तो 1942 में गांधी के आंदोलन को भी आरएसएस ने समर्थन दिया था। क्या इससे साबित होता है कि गांधी और आरएसएस के बीच सांठ-गांठ था?
दरअसल गांधीवादियों को अन्ना विरोध का दूसरा ही कारण है और वही कारण काफी हद तक अरूणा राय व अरूंधती राय के साथ भी है। ये सभी खुद को बड़ा विद्वान मानते हैं और शायद हैं भी। परंतु, गांधीवादियों को यह पच नहीं रहा कि गांधी का नाम जीवन भर लेने के बाद भी उन्हें इतनी प्रसिद्धि नहीं मिली और न ही गांधीवादी के रूप में इतना प्रचार मिला। अब वे अपनी कुंठा और इष्र्या अन्ना के अनशन और उनके बयानों के बहाने जाहिर कर रहे हैं।
अरूणा राय और अरूंधती राय के साथ भी यही बात है। अरूणा राय भी एनजीओ चलाती हैं और सूचना का अधिकार ने उन्हें काफी यश दिलाया। वे आईएएस रह चुकी हैं। अब उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा कि किसी गांव का एक काफी कम पढ़ा-लिखा आदमी देश का हिरो बन गया। काफी दिनों से वे चर्चा से भी दूर थीं। एक और बात है कि वह सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति की सदस्य हैं। अन्ना के आंदोलन को चोट पहुंचाकर उन्होंने अपनी कुंठा भी निकाल ली और सोनिया की दोस्ती निभा दी।
अरूंधती राय की पहचान तो लेखिका के रूप में है लेकिन उनकी चर्चा लेखन के लिए कम और उनके बयानों के लिए अधिक होती है। वैसे वह चर्चा में रहना उनकी हमेशा पहली पसंद रही है। इधर वह काफी दिनों से चर्चा से दूर थीं। उन्हें मौका मिला अन्ना के आंदोलन में और उसका फायदा उन्होंने उठा लिया। हालांकि अन्ना के कम पढ़े लिखे होने के बावजूद नेशनल हीरो बन जाने की बात अरूंधती राय को भी नागवार गुजरी है।
बहरहाल, अन्ना और उनके आंदोलन व बयानों को लेकर कथित गांधीवादियों की आपत्तियों को देखकर यह साफ हो जाता है कि यह गांधीवादियों की कुंठा है या तो गांधीवादियों ने गांधी को पढ़ना बिल्कुल छोड़ दिया है और वे गांधी की प्रतिमा के आगे सिर झुकाना ही गांधीवाद समझने लगे हैं। हां, तीसरा कारण कांग्रेस की वफादारी भी हो सकती है। तीनों ही स्थितियां देश व गांधीवाद के लिए खतरनाक है।
सुधीर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें