संस्कृति। हर जगह प्रयुक्त होने वाला शब्द। यह पता नहीं चलता कि आखिर हमारी संस्कृति क्या है। ऐसा मान लिया जाता है कि हमारे समाज में जो परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है, वह हमारी संस्कृति है। परंतु, इसके आधार पर संस्कृति का ठीक-ठाक पता लगाना नामुमकिन है। खास कर कई कट्टरताएं, जो हमारे समाज में कुछ दशकों या एक-दो सदी से कायम हैं, उन्हें भी संस्कृति मानकर गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। हमारा वर्तमान और अतीत दोनों ही गवाह हैं कि वक्त के साथ हमारी संस्कृति बदलती रही है और बदलना चाहिए भी।
कुछ दशक पहले तक लड़कियों को घर से बाहर न निकलना संस्कृति थी। ऐसा नहीं कि यह प्राचीन काल से भारत में व्याप्त थी। प्राचीन काल के ग्रंथों, प्राचीन इतिहास व प्राचीन काल के यात्रियों के यात्रा वृतांत के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय समाज में महिलाएं भी पुरूषों की तरह अधिकार संपन्न थीं। घर से लेकर शासन तक में महिलाओं से विचार विमर्श किया जाता था। उनकी बातें मानीं जाती थीं। उन्हें घर के अंदर घुंघट में कैद रखने की परंपरा नहीं थी। उन्हें पुरूषों की तरह स्वतंत्रता प्राप्त थीं। बाद में मुगल काल में मुसलमानों के संपर्क में आकर संस्कृति बदली। महिलाओं को घुंघट में घर के अंदर कैद कर दिया गया। बाद में अंग्रेजों के संपर्क में आने से संस्कृति फिर बदली। आधुनिक शिक्षा ने महिलाओं के लिए भी बराबरी का दरवाजा खोला। इस दौरान दक्षिण भारत काफी हद तक मुगलों से अछुता रहा। इसका फल निकला कि हमेशा ही वहां की स्त्रियां उत्तर भारत की स्त्रियों से अधिक स्वतंत्र रहीं। वहां कभी भी घुंघट प्रथा का प्रचलन नहीं हुआ। 
हिंदू समाज में व्याप्त छुआछूत को भी संस्कृति का नाम देकर अभी तक ढोया जा रहा है। अपने ही सहधर्मियों को समानता के अधिकार से वंचित रखा गया। संस्कृति के नाम पर गाय आदि पशु और वृक्षों की पूजा की जाती है और आदमी को अछूत माना जाता है। यह कैसी संस्कृति है? हम यह कहते नहीं थकते कि हमारी संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम की संस्कृति है। परंतु, यह लफ्फाजी के अलावा कुछ नहीं। सच तो यह है कि हम अपने ही देशवासियों को सदियों से अछूत मानते चले आ रहे हैं, पूरी पृथ्वी को कुटंुब बनाने की तो बात ही दूर है। आज भी दूसरे संप्रदाय के लोगों से दुश्मन की तरह व्यवहार किया जाता है।
संस्कृति के नाम पर भारत में लंबे समय तक जौहर प्रथा और सती प्रथा कायम रही। न जाने कितनी निर्दोष महिलाओं को इस घिनौनी प्रथा के नाम पर जिंदा आग में जला दिया गया। बहुत बड़ी आबादी इसकी समर्थक रही है। परंतु, क्या कोई विवेकशील व्यक्ति इसे सही बता सकता है? सती प्रथा इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि अगर विवेक का इस्तेमाल न कर सिर्फ संस्कृति के नाम पर कितना जुल्म ढाया जा सकता है, संस्कृति कितना अमानवीय और क्रूर हो सकती है।
संस्कृति के नाम पर विधवा विवाह का विरोध किया जाता है। आज भी सवर्ण हिंदुओं में यह प्रथा काफी हद तक कायम है। उनका विवेक अब धीरे-धीरे जगने लगा है। इससे संस्कृति बदलने लगी है।
इसी देश में महिलाओं को कथित पवित्र मंदिरों में देवदासी का नाम देकर पुजारियों द्वारा यौन शोषण किया जाता रहा है। महिलाओं को संस्कृति की दुहाई देकर पुरूषों का गुलाम बना दिया गया। आदि काल से अनगिनत मजबूर महिलाओं को वेश्या बनाकर उनका शोषण किया जाता रहा है। त्योहारों में भी एक ओर तो मिट्टी की प्रतिमा को मां का दर्जा दिया जाता है, दूसरी ओर ठीक बगल में जिंदा स्त्रियों को अश्लील गानों पर नचाकर गंदी टिप्पणियां की जाती हैं। तुर्रा यह कि यह सब संस्कृति के नाम पर।
आज सती प्रथा कमोबेश मिट सा गया है। लड़कियां अब पर्दे की कैद से बाहर निकलकर पुरूषों की बराबरी करने लगी है। बाल विवाह पर भी काफी हद तक रोक लगी है। विधवा विवाह होने लगे हैं। देवदासी की हकीकत भी लोग समझ चुके हैं। यह सब कैसे हुआ? सीधा जवाब है- विवके जगने से, जानकारी बढ़ने से। साफ है कि जब विवेक जगता है तो संस्कृति भी बदल जाती है। इसका तो अर्थ है कि संस्कृति को विवेक के आधार पर बदला जा सकता है।
कुछ लोक कह सकते हैं कि यह सब संस्कृति नहीं परंपरा थी या है। दिल पर हाथ रखकर कहिए, व्यवहार में और आचरण में संस्कृति और परंपरा के बीच फर्क ही कितना बचा है। साथ ही यह भी जान लीजिए कि समाज के कमजोर वर्गों पर जो जुल्म ढाये गये, वह किसी परंपरा नहीं, वरन संस्कृति की दुहाई देकर।
विवेक के आधार पर संस्कृति को बदलने की पंरपरा आदि काल से ही चली आ रही है। राम के वंश में पुरूष एक से अधिक विवाह करते थे। राम ने इस संस्कृति को बदलने का प्रयास किया। ऐसा उन्होंने अपने विवेक के आधार पर किया। गोकुल की संस्कृति में इंद्र की पूजा शामिल थी। श्रीकृष्ण ने इसका विरोध किया। उन्होंने इस संस्कृति को बदलने के लिए पूरे समाज को भी तैयार कर लिया। श्रीकृष्ण विवेकी थे। उन्होंने जाना कि पूजा पर्यावरण की होनी चाहिए, जिससे हमारा जीवन सुरक्षित है। स्वामी विवेकानंद के युग में संस्कृति के नाम पर विदेश गमन की मनाही थी। विवेकानंद ने अपने विवेक का इस्तेमाल किया और इस संस्कृति की दीवार को तोड़ दिया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का विरोध किया और उसके खिलाफ कानून भी बनवाया। ऐसा विवेक के आधार पर ही हुआ। ऐसे कितने ही उदाहरण भरे पड़े हैं, जो कभी संस्कृति कहलाते थे और फिर वे बदल दिये गये। हां, इतना जरूर हुआ कि हर परिवर्तन को समाज के हित में ही बदला गया। यहां यह भी साबित हो रहा है कि संस्कृति से बढ़कर समाज हित है।
फिर भी दुर्भाग्य से आज कल राह चलते लोग मिल जाते हैं जो बार बार कहते हैं कि हमारी संस्कृति बदलने से समाज बर्बाद हो रहा है। मैं पूछता हूं, कौन सी संस्कृति बदलने से समाज बर्बाद हो रहा है। क्या लड़कियां उच्च शिक्षा पाने लगी हैं इससे? महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार मिल गये हैं इससे? समाज में धर्म के नाम पर दुकान चलाने वालों की तानाशाही खत्म हो गयी है इससे? लोगों को अंधविश्वास और धर्म के बीच फर्क समझ में आने लगा है इससे? छुआछूत की भावना खत्म हो रही है इससे?
यह सब बरगलाने वाली बात है कि संस्कृति बदलने से हमारा समाज बर्बाद हो रहा है। सच तो है कि संस्कृति के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाकर अपनी दुकान चलाने वाले बर्बाद हो रहे हैं। उनका वर्चस्व खत्म हो रहा है। इससे वे बौखलाए हुए हैं और चाहते हैं कि जहां तक हो सके उनकी दुकान की रक्षा हो जाए। साथ में यह भी हो रहा है कि कुछ बेअक्ल उनके झांसे में आकर बिना विचारे उनकी हां में हां मिला रहे हैं।
विवेक के आधार पर विचार करें। आज मानव सभ्यता जितना सुंदर है, कभी नहीं थी। क्या लोकतंत्र से बेहतर कोई शासन आज तक रहा है, जो जनता के प्रति इस तरह जवाबदेह हो? क्या पहले कभी स्त्रियों को इतना अधिकार प्राप्त रहा है? क्या पहले इतनी आसानी से शिक्षा व स्वास्थ्य उपलब्ध था? सच तो यह है कि पहले कभी भी इतना विवेक के इस्तेमाल की ही स्वतंत्रता नहीं थी, फिर अच्छी और समृद्ध संस्कृति की कल्पना कैसे की जा सकती है?
सुधीर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें