आमतौर पर समझा जाता है कि हिंदू शुरू से ही पूरी तरह से शाकाहारी रहे हैं। हिंदुओं ने विदेशियों के संपर्क में आकर मांसाहार शुरू किया। लेकिन इतिहास इस बात को पूरी तरह झूठलाता है। हमारा इतिहास साफ-साफ बताता है कि हिंदुओं में मांस खाने का प्रचलन न सिर्फ शुरू से रहा है, बल्कि वे गाय का मांस भी खाते थे और यहां तक कि घोड़े का भी। यह कोई आदिम काल की बात नहीं है। यह उस समय तक कि बात है जब हिंदू सभ्यता का पूरा विकास हो चुका था।
सभी इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि बौद्ध धर्म के आगमन के पूर्व भारत में बलि प्रथा का प्रचलन जोरों पर था। बिना बलि के कोई भी धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं होता था। हिंदुओं के देवी देवता पशुओं का रक्त व मांस के शौकीन थे। यहां तक कि देवी-देवताओं को खुश करने के लिए भेड़-बकरियों के अलावा भैंस का बच्चा, भैंसा, बैल आदि की भी बलि दी जाती थी। देवी-देवता किसी भी धर्म के सर्वोच्च आदर्श होते हैं। यह आसानी से समझा जा सकता है कि जिस धर्म के सर्वोच्च आदर्श भैंसा आदि के मांस के शौकीन हों, वे धर्मावलंबी क्या मांस भक्षण से खुद को दूर रख सकते हैं? बलि प्रथा आज भी जीवित है। भारत में कई ऐसे प्रसिद्ध मंदिर हैं, जिनमें आज भी प्रतिदिन बड़ी संख्या में पशुओं की बलि दी जाती है। अगर गांवों के देवी-देवताओं को भी इनमें शामिल कर लिया जाए तो ऐसे असंख्य हिंदू देवी-देवता मिल जाएंगे, जिनका सबसे प्रिय आहार पशुओं का मांस व रक्त है। इस पर हिंदू धर्माचार्यों का मौन एक तरह से उनकी सहमति को ही प्रकट करता है।
विश्व में एकमात्र हिंदू राष्ट्र का दर्जा रखने वाले देश नेपाल में आज भी बलि प्रथा का खूब प्रचलन है। वहां प्रतिवर्ष एक ऐसा धार्मिक उत्सव होता है, जिसमें भैंसों के हजारों बेजुबान बच्चों की बलि दे दी जाती है। वहां जो दृश्य उत्पन्न होता है, उससे अच्छे दिल जिगर वाला व्यक्ति भी थर्रा जाता है। शाकाहार के कथित प्रेमी हिंदुओं ने इसे रोकने का कभी प्रयास नहीं किया। हद तो यह कि जब नेपाल के पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र भारत आये थे, तो उन्होंने यहां के भी एक मंदिर में एक पशु की बलि दी थी।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपने सबसे अधिक सम्मानजनक ग्रंथ संस्कृति के चार अध्याय में अनेक प्रमाणों के आधार पर निष्कर्ष दिया है कि हिंदू काफी समय तक गाय का मांस खाते रहे हैं। हिंदुओं ने बौद्धों के संपर्क में आकर गोमांस खाना छोड़ा।
ग्यारहवीं शताब्दी के महान विद्वान अल बिरूनी ने अपनी भारत यात्रा के दौरान हिंदुओं के आहार के बारे में जो वर्णन किया है, वह उनके कहीं से भी शाकाहारी होने का संकेत नहीं है। अल बिरूनी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ तारीख उल हिंद में धार्मिक अनुष्ठानों में यज्ञों का विस्तार से लिखा है। अश्वमेध यज्ञ के बारे में अल बिरूनी ने लिखा है कि इस यज्ञ की पूर्णाहुति हो जाने पर यज्ञ के घोड़े की बलि दे दी जाती थी। घोड़े का मांस राजपरिवार के लोग और पुरोहित यज्ञ के प्रसाद के रूप में खाते थे। यह तथ्य इस बात को इंगित करता है कि उस समय के उच्च वर्ण के हिंदुओं में घोड़े का मांस काफी प्रिय था।
इतिहास व धार्मिक ग्रंथ दोनों ही बताते हैं कि दूसरे राजाओं की तरह हिंदू राजाओं में भी शिकार करने की पूरी परंपरा रही है। यह शानोशौकत के साथ-साथ पराक्रम का भी प्रतीक माना जाता था। वे शिकार के दौरान सिर्फ शेरों का ही शिकार नहीं करते थे बल्कि हिरण आदि का भी शिकार किया जाता था। यह प्रमाणित तथ्य है कि हिरण का शिकार मांसाहार के लिए ही किया जाता था।
हिंदुओं की बहुसंख्य आबादी दलितों में तो मरे हुए गाय, बैल आदि के मांस खाने का प्रचलन हाल के दिनों तक रहा है। प्रेमचंद ने अपनी कालजयी रचना कर्मभूमि में यह दिखाया है कि दलित हिंदू मृत गाय का मांस खाते थे। उपन्यास का नायक अमरकांत उन्हें बाद में इससे रोकता है। हाल-फिलहाल के भी कई दलित लेखकों ने भी अपनी आत्मकथा आदि में इसका उल्लेख किया है कि उनके समाज में उनके जीवनकाल में भी गाय, बैल आदि का मांस खाने का प्रचलन रहा है।
दलितों में एक जाति के नाम के बारे में तो यह कहा जाता है कि वे मूस अर्थात चूहा का आहार करते हैं, इसीलिए उनकी जाति का नाम मूस का आहार करने वाला का एक शब्द बनाकर रखा गया है। दलितों और पिछड़ों की कई जातियां अनंत काल से भेड़, बकरी, कुक्कुट आदि का मांस खाती रहीं हैं। कई दलित व पिछड़ी जातियों में सुअर का मांस आज भी सबसे अधिक प्रिय है।
आधुनिक काल का इतिहास भी गवाही देता है कि हिंदुओं व मुसलमानों के बीच कई बार झटका और हलाल मांस को लेकर भी विवाद होता रहा है। दोनों के बीच शाकाहार व मांसाहार के कारण विवाद होने का कभी कोई उदाहरण नहीं मिलता। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने तो हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अपनी रसोई में झटका व हलाल मांस एक साथ पकाने की प्रथा शुरू की थी। समुद्रतटीय लोगों का मछली से रिश्ता आदि काल से अभी तक निरंतर रहा है, चाहे वो जिस धर्म या जाति के हों।
अल बिरूनी ने यह तो साफ कर ही दिया है कि उस काल में पुरोहित वर्ग घोड़े का मांस खाते थे। संतों में मांसाहार की परंपरा बाद में भी जारी रही है। यहां तक कि आधुनिक काल के सर्वाधिक विद्वान व प्रभावशाली हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानंद भी मांस खाते थे। उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट बताती है कि उनके अंतिम आहार में मछली भी शामिल थी। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ में एक जगह स्वीकार किया है कि मांस खाना चाहिए। वहां ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी अगर अपनी मां से किये गये वादे से बंधे न होते तो निश्चित ही वे भी मांसाहार करते। गांधी अपने एक मित्र से कहते हैं, ‘मैं स्वीकार करता हूं कि मांस खाना चाहिए, पर मैं अपनी प्रतिज्ञा का बंधन नहीं तोड़ सकता।’
डा. भीमराव अंबेदकर ने ‘हू वेयर अनटचेबल्स’ में हिंदू धर्मग्रंथों से बड़ी संख्या में ऐसे प्रमाण दिये हैं, जिनमें बताया गया है कि सनातनधर्मी भी आदि काल से ही मांसाहारी होते थे। अंबेदकर द्वारा दिये गये कुछ उदाहरण देखिए। माधव गृहसूत्र के अनुसार, आर्यों में विशेष अतिथियों के स्वागत के लिए जो सर्वश्रेष्ठ चीज परोसी जाती थी, उसका नाम मधुपर्व था। इस ग्रंथ के अनुसार, वेदों की आज्ञा है कि मधुपर्व बिना मांस के नहीं होना चाहिए। शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य एक जगह जवाब देते हैं- ‘मगर मैं मांस खा लेता हूं, अगर मुलायम हो तो।’ आपस्तंब धर्मसूत्र के अनुसार, ‘ गाय और बैल पवित्र हैं, इसलिए खाये जाने चाहिए।’ ऋग्वेद में इंद्र का कथन है, ‘‘ वे मेरे लिए 15 बैल पकाते हैं, जिनका मैं वसा खाता हूं। इस खाने से मेरा पेट भर जाता है।’’ मनु के अनुसार, ‘‘पंचनखियों में सेह, साही, शल्लक, गोह, गैंडा, कछुआ, खरहा तथा एक और दांत में पशुओं में उूंट को छोड़कर बकरे आदि पशु भक्ष्य हैं।’’ इन कथनों के अलावा और भी ढेरों श्लोकों का उदाहरण देकर अंबेदकर ने साबित किया है कि हिंदुओं के धर्मग्रंथ भी उनके मांसाहारी होने का समर्थन करते हैं।
ऐसे ढेरों प्रमाण भरे पड़े हैं जिससे पता चलता है कि तांत्रिक अपने अनुष्ठान के साथ-साथ दैनिक आहार में भी मांस खाते हैं। यहां तक कि उनके द्वारा मानव मांस भी भक्षण करने और मानव रक्त पीने की बात साबित हो चुकी है। अभी भी भारत में आनंद मार्ग आदि कई ऐसे हिंदू आध्यात्मिक संगठन हैं, जिनमें संन्यासी मानव की खोपड़ी का इस्तेमाल साधना में करते हैं। मानव की खोपड़ी का इस्तेमाल करने वाले को कितना शाकाहारी माना जा सकता है?
यह बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि हिंदुओं में आदि काल से मांस खाने की परंपरा रही है। यह किसी भी दूसरे धर्मावलंबियों से कम नहीं रही।
सुधीर
2 टिप्पणियां:
वेद में कही मांस खाने को नहीं लिखा हुआ है और सभी ऋषि शाकाहारी थे, सुधीर जी ने बिल्कुल गलत उदाहरण दिया है ऋग्वेद का, में सुद्जिर जी को संस्कृत तो आती ही नहीं है, में चैलेन्ज करता हूँ सुधीर जी को तर्क करने के लिएमेरी फेसबुक में email id hai -> priyavratarya2@gmail.com
चार प्रकार के जीवित संसार में हैं स्वेदज- जिनका जन्म नमी या पसीने से हुआ। अंडज- जिनका जन्म अंडे से हुआ। जरायुज- जिनका जन्म गर्भ से हुआ। उद्भिज- जिनका जन्म धरती फाड़ कर हुआ। स्वेदज किट पतेगे आदि। अंडज उद्भिज और जरायुज मल में जन्म लेते हैं या मलीय मार्ग से जन्मते है़। सिर्फ पेड़ पौधे मल से उत्पन्न नहीं होते इसलिए खाने योग्य हैं। क्या पता क्यों बिना पढ़े लिखे लोग काबिल होने का दंभ भरने लग जाते हैे।
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