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सुखराम |
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बाबू सिंह कुशवाहा |
अभी भारतीय जनता पार्टी ने दो काम एक साथ किया। पहले उसने बाबू सिंह कुशवाहा को अपनी पार्टी में धूमधाम से शामिल किया। उसके बाद बीजेपी के सांसदों ने राष्ट्रपति से मिलकर यह शिकायत की कि यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के प्रति गंभीर नहीं है। उसने राष्ट्रपति से राज्यसभा में लोकपाल के मुद्दे पर वोट करवाने की मांग की। फिर भाजपा और कांग्रेस के नेताओं ने हमेशा की तरह यह साबित करने की कोशिश की कि दूसरे के शरीर पर अधिक गोबर लिपटा हुआ है।
बहरहाल बीजेपी ने बाबू सिंह कुशवाहा को अपनी पार्टी में शमिल कर अपना असली रूप फिर दिखा दिया। उसे हर हाल में सत्ता चाहिए। इसके लिए गुंडे-मवाली अथवा अपादमस्तक भ्रष्टाचार में डूबे व्यक्ति को भी गले लगाने से कोई परहेज नहीं है।
सबसे पहले जानते हैं बाबू सिंह कुशवाहा के बारे में। बाबू सिंह उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार में परिवार कल्याण मंत्री थे। उनका नाम पहले सीएमओ डॉ. बीपी सिंह की हत्या में आया। इसके बाद उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। उन्होंने मंत्री पद का फायदा उठाकर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में जमकर लूटपाट की। मामले का खुलासा होने पर उन्हें मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। कुशवाहा को मंत्री पद से त्यागपत्र देने के लिए कांग्रेस व भाजपा ने काफी दबाव बनाया। कुशवाहा पर भाजपा व कांग्रेस ने सार्वजनिक रूप से भ्रष्टाचार के काफी आरोप लगाये। कुशवाहा को राजनीति में भ्रष्टाचार का प्रतीक बना दिया गया। उसके बाद जैसे ही कुशवाहा से मायावती ने इस्तीफा दिलवाया, उन पर कांग्रेस व भाजपा ने डोरे डालना शुरू कर दिया। आखिर भाजपा सफल रही है।
कल तक जिस नेता को भाजपा यूपी का सबसे भ्रष्ट शख्स साबित करती रही, उसे मौका मिलते ही अपनी पार्टी में शामिल कर लिया। अन्य दल स्वभाविक तौर पर हमला करने लगे। भाजपा बचाव की मुद्रा में आ गयी। उसके नेता गंगा में आकर सबकुछ शुद्ध हो जाने जैसे बेशर्मी भरा व बेहुदा बयान देने लगे।
इस घटनाक्रम में भाजपा की राज्यसभा में वोटिंग की मांग हास्य नाटक बनकर रह गयी। साथ ही अब जब वह भ्रष्टाचार की बात कह रही है तो वह या तो चुटकुला लगता है या फिर गंदी राजनीति की मिसाल। सबसे अधिक इसमें जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है। उसे साफ दिख रहा है कि उसे भ्रष्टाचार से छुटकारा नहीं मिलने वाला।
भारतीय राजनीति में यह अवसरवादी और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने का भाजपा का पुराना तरीका है। 1996 में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री सुखराम पर घपलेबाजी का आरोप लगा था। उन्होंने खास कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए सरकारी खजाने को करीब 16 करोड़ रुपये का चूना लगाया था। आरोप लगते ही भाजपा सुखराम को सबसे भ्रष्ट नेता बताते हुए इस्तीफा की मांग करने लगी। सुखराम को इस्तीफा देना भी पड़ा। सुखराम के इस्तीफा देते ही भाजपा ने उन्हें अपनी पार्टी में शामिल कर लिया। साथ ही, उसने कांग्रेस पर यह भी आरोप भी लगाया कि उसने सुखराम जैसे महान समाजसेवी और समर्पित नेता का अपमान किया है। बाद में सुखराम को इस मामले में 2002 में जेल भी जाना पड़ा था।
बाबू सिंह कुशवाहा की घटना ने एक बार फिर भाजपा को नंगा कर दिया है। इस नंगेपन को ढकने के लिए भाजपा को कोई आवरण नजर नहीं आ रहा है। खुद उसकी पार्टी और सहयोगी दल भी विरोध कर रहे हैं। सांसद आदित्यनाथ ने खुले तौर पर अपनी नाराजगी जतायी है। कीर्ति आजाद ने भी आदित्यनाथ के सुर में सुर मिलाया है। भाजपा के बड़े नामों को सांप सूंघ गया है। मीडिया के सामने कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं। सभी मुंह चुराते चल रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा को इस मामले में सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़े।
अभी तक वह अन्ना व रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को सहारा लेकर कांग्रेस को घेरते रही थी। इसी माहौल का फायदा उठाकर वह बढ़त भी बनाये हुए दिख रही थी। यह उसका दुर्भाग्य ही है कि थोड़ी सी लापरवाही और लालच ने उसका असली चेहरा जनता के सामने प्रकट कर दिया, जिसे वह काफी सावधानी से छुपाये हुए थी।
पिछले साल कर्नाटक में भ्रष्टाचार के मामले में भाजपा की जो नाक कटी, सबने देखी। भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगने के बाद भी येदयुरप्पा मुख्यमंत्री का पद छोड़ने को तैयार नहीं थे। अंत में उन्होंने पद छोड़ा भी तो अपने पसंद के व्यक्ति को अपनी गद्दी देकर। यह भाजपा में ही संभव है कि एक ओर जिस व्यक्ति को भ्रष्टाचार के कारण अपना पद छोड़ना पड़ा, दूसरी ओर उसे ही अपना उतराधिकारी चुनने का भी अधिकार दे दिया गया।
दरअसल भाजपा के साथ सबसे बड़ी बिडंबना यही है कि वह कांग्रेस को जिन कमजोरियों पर कोसती है, वह खुद उसका शिकार है। वंशवाद की जो पराकाष्ठा कांग्रेस में दिखती है, वह अब भाजपा में भी खूब दिखने लगी है। बिहार में हुए पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अपने बेटे को टिकट न मिलने से नाराज होकर अपने पद से ही इस्तीफा दे दिया था। आखिर उनके बेटे को एमएलसी बनाकर मामला सलटाया गया। भाजपा के फायर ब्रिगेड नेता वरूण गांधी वंशवाद की ही देन हैं। अटल सरकार में वित्त व विदेश मंत्री रहे जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह भी सांसद बने हुए हैं। बिहार में सिने अभिनेता व सांसद शत्रुघ्न सिन्हा अपनी पत्नी पूनम सिन्हा को टिकट न मिलने पर सार्वजनिक रूप से नाराजगी का इजहार कर चुके हैं। ऐसे ढेरों उदाहरण भाजपा में भरे पड़े हैं।
इस मामले में सबसे आवाक आम जनता है। जिस राज्य में यह हुआ, वहां उसे तुरंत सरकार और अपना प्रतिनिधि चुनना है। वह चुने तो किसे? उसके पास विकल्प कहां हैं? मायावती के राज में भ्रष्टाचार के तमाम मामले सामने आये। उन्होंने जब भ्रष्ट नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया तो उन भ्रष्ट नेताओं को अपनी पार्टी में लेने की होड़ लग गयी। कांग्रेस ने पहले ही करीब 40 वर्षों के अपने शासन में यूपीवासियों को पूरी तरह से नाउम्मीद कर दिया है। समाजवादी पार्टी के दौर में भी जन वितरण प्रणाली समेत एक से बढ़कर घोटाले हुए। अभी डीपी यादव का मामला भी छाया हुआ है। वैसे भी सपा राजनीतिक दल कम, जातीय समूह व पारिवारिक कुनबा अधिक दिखता है। क्या राईट टू रिजेक्ट की आवश्यकता फिर भी नहीं है?
सुधीर
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