गुरुवार, 12 जनवरी 2012

गांधीवाद पर सवाल उठा गया 2011


रामदेव के प्रदर्शन पर पुलिसिया कार्रवाई

अनशन से पहले ही अन्ना गिरफ्तार
वर्ष 2011 में देश में सबसे अधिक चर्चित रहे गांधीवादी अन्ना हजारे। उन्होंने गांधीवाद का सहारा लेकर लोकपाल के लिए जो आंदोलन शुरू किया, पूरा देश उसमें शामिल हो गया। परंतु, साल के अंत होते-होते गांधीवाद पर सत्ता की जीत हो गयी।
अनशन करते हुए निगमानंद की मौत
हालांकि गांधीवाद की हत्या की शुरुआत रामदेव के आंदोलन से हुई। रामदेव का आंदोलन भी पूरी तरह से गांधीवाद पर आधारित था। वे अपने समर्थकों के साथ रामलीला मैदान में काले धन के खिलाफ अनशन प्रदर्शन कर रहे थे। सरकार के साथ बातचीत चल रही थी। अचानक रामदेव के शिविर पर आधी रात को सरकार के इशारे पर दिल्ली पुलिस ने डंडे बरसाने शुरू कर दिये। इसमें कई आंदोलनकारी गंभीर रूप से घायल हुए। कम से कम एक की मौत भी हो गयी। बाबा रामदेव को लड़कियों के वस्त्र पहनकर भागना पड़ा, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। गांधीवाद लोकतांत्रिक अधिकारों को पूरे देश के सामने कुचल दिया गया।
इरोम 11 साल से अनशन पर
इसके कुछ ही दिनों बाद अन्ना को उनके घोषित अनशन के पहले ही उनके आवास से गिरफ्तार कर लिया गया। यह सरकार द्वारा डंके की चोट पर गांधीवाद की हत्या की दूसरी कोशिश थी। भला हो देश के नागरिकों को, जिन्हें लोकतंत्र की हत्या का ख्याल आया। सरकार को घुटने टेककर अन्ना को रिहा करना पड़ा। परंतु, ऐसा सरकार ने लोकतंत्र के ख्याल से नहीं किया। सरकार ने ऐसा देश का मिजाज भांपकर किया। यही वजह है कि दिसंबर में अन्ना के अनशन में जैसे ही भीड़ नहीं दिखी, सरकार ने इसे अपनी जीत बता दी।
एक और अहम जगह गांधीवाद अप्रासंगिक होते दिखा। हालांकि यहां गांधीवाद कई वर्षों से उपेक्षित है। वह है मिजोरम की ईरोम चानू शर्मिला के मामले में। मिजोरम में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार नामक जंगली कानून को हटाने की मांग को लेकर ग्यारह वर्ष से अधिक समय से शर्मिला अनशन पर हैं। सरकार ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। ईरोम को किसी मुख्य राजनीतिक दल का समर्थन भी नहीं मिला। इसका मुख्य कारण है कि किसी भी दल को इस मामले से वोटबैंक का फायदा नजर नहीं आया। ईरोम ने अपनी मदद के लिए अन्ना से मार्मिक गुहार भी लगायी, लेकिन अभी तक अन्ना ने आश्वासन देने के अलावा उनकी और कोई मदद नहीं की है। गौरतलब है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून लोकतंत्र और मानवाधिकार कुचलने का ही संवैधानिक नाम है।
गंगा में अवैध उत्खनन रोकने की मांग को लेकर अनशन कर रहे स्वामी निगमानंद की मौत भी इसी कड़ी में रखी जानी चाहिए। लंबे अनशन के बाद स्वामी निगमानंद की मौत हो गयी। सत्ता से गांधीवादी तरीके से लड़ते हुए निगमानंद को अपनी जान देनी पड़ी। उनकी बात सुनी गयी, लेकिन उनकी मौत के बाद।
बहरहाल पिछले साल जो स्थिति बनी, उससे गांधीवाद पर सवाल उठना लाजिमी है। खास यह भी कि भारत में गांधीवाद लोकतांत्रिक मूल्य एक दूसरे से जुड़े नजर आते हैं। ऐसे में देश की चिंता करने वाले क्या करें? यह भी सवाल उठता है कि गांधीवादी आंदोलनों को नजरअंदाज करने और कुचलने वाली सरकारें क्या वास्तव में नक्सलवाद रोकना चाहती हैं?
इन घटनाओं ने इस धारणा को मजबूत किया कि भारतीय लोकतंत्र में जनता के बजाय सत्ता प्रधान है। यहां तक कि लोकपाल पर आम जनता की बातचीत को ही लोकतंत्र के लिए खतरा बता दिया गया। नेता पूरे साल यह साबित करते रहे कि जनता को वोट देने के अलावा लोकतंत्र से और कोई मतलब नहीं होना चाहिए।
वर्ष 2012 में पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं। जनता अपने सबसे बड़े हथियार मतदान का इस्तेमाल कर नेताओं को लोकतंत्र का पाठ पढ़ा सकती है। दुर्भाग्य यह है कि उसे नागनाथ और सांपनाथ में से एक को चुनना है।
सुधीर

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