मंगलवार, 17 जनवरी 2012

सलमान पर बवाल क्यों

प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी की भारत यात्रा को लेकर राजनीतिक गलियारों में घमासान मचा है। सलमान अचानक ही राजनीति के केंद्र में आ गये हैं। सभी राजनीतिक दल उन पर निशाना साध रहे हैं।
शुरुआत की दारूल उलूम देवबंद के एक मौलाना ने। उसके बाद नेताओं में मुस्लिम समाज के बीच खुद को अधिक से अधिक हमदर्द साबित करने की होड़ सी लग गयी। पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों को देखते हुए यह गंभीर मसला हो गया। ऐसा नहीं कि सलमान भारत में पहले नहीं आये हैं, लेकिन पहले उनकी यात्रा चुनाव के समय नहीं थी। मुख्य फर्क यही है, अन्यथा यह मामला 22 वर्ष बाद इतनी सुर्खियों में नहीं होता।
सलमान का विरोध उनकी प्रसिद्ध पुस्तक सेटैनिक वर्सेस पर है। यह किताब को भारत में 20 वर्ष पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया था। ऐसा तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने किया था। प्रतिबंध की वजह से उस किताब में क्या है, यह जानने वाले गिने चुने हैं। जो हैं भी वे उंगली पर गिने जा सकते हैं। यहां तक कि जो नेता व मौलाना विरोध कर रहे हैं, वे खुद भी नहीं जानते कि उस किताब में सलमान ने ऐसा क्या लिख दिया, जिससे इस्लाम का अपमान हो गया।
सेटैनिक वर्सेस पढ़ने का दावा करने वाले भी दो तरह की बातें कह रहे हैं। कुछ का कहना है कि उसमें पैगंबर मुहम्मद और उनकी मां के लिए अश्लील बातें लिखी गयी हैं। कुछ का कहना है कि किताब में इस्लाम में समयोचित सुधार की बातें लिखी हैं। जाहिर बात है कि धूर्त नेता व चरमपंथी दोनों ही बातों का लाभ उठाते हैं।
नेताओं और मौलानाओं का मानना है कि सलमान रुश्दी को भारत आने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। चरमपंथियों और वोटार्थियों का मत है कि सलमान ने इस्लाम का अपमान किया है। लिहाजा वे सजा के हकदार हैं।
चरमपंथियों और वोटार्थियों के तमाम दुष्प्रचार के बावजूद भारत के बुद्धिजीवी सलमान को एक बेहतर लेखक व बौद्धिक व्यक्ति मानते हैं। उनका मानना है कि सलमान ने अपने विचार प्रकट किये हैं। यह उनका अभिव्यक्ति का अधिकार है।
विश्व में कहीं भी धार्मिक भावनाओं को आहत करना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा रेखा स्पष्ट नहीं है। चरमपंथी इसी का लाभ उठाते हैं। किस बात पर उनकी आस्था पर चोट पहुंचेगी, कहा नहीं जा सकता। परंतु, सबसे अहम यह है कि इसे तय करने के लिए कोई भी न्यायालय जाने का विचार नहीं कर रहा कि सलमान की किताब सही है या गलत, जबकि इसका फैसला करने का अधिकार न्यायालय को है।
किताबों को लेकर यह विवाद नया नहीं है। डाॅ अंबेदकर ने काफी पहले मनुस्मृति को जलाया था। मनुस्मृति आज भी संघ व इस जैसे संगठनों के लिए हिंदू धर्म के लिए संविधान है। तसलीमा नसरीन की पुस्तक लज्जा व फिर बाद में द्विखंडिता पर काफी बवाल हो चुका है। द्विखंडिता पर पश्चिम बंगाल में काफी दिनों तक प्रतिबंध भी लगा रहा। अभी हाल में ही कट्टर हिंदू संगठनों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रामायण संबंधी एक पुस्तक को हटवा दिया, जो कि विश्व में रामायण के विभिन्न रूपों पर शोध है। यूरोप में काफी पहले काॅपरनिकस की किताब खोज-खोज कर जला दी गयी थी, जिसमें उन्होंने यह बताया था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है और सूर्य स्थिर रहता है।
एक बात सभी घटनाओं में मिलता है कि किताबों से दिक्कत आम आदमी या आम पाठकों को नहीं होती। दिक्कत उन्हें ही होती है, जो धर्म के सहारे अपना वर्चस्व बनाये रखते हैं। उनके पाखंड को उजागर करने वाली किताबों से उन्हें अपनी गद्दी खतरे में दिखायी पड़ने लगती है। अपनी गद्दी बचाने के लिए वे तरह-तरह के कुतर्कों का सहारा लेते हैं।
सेटैनिक वर्सेस पर दारूल उलूम देवबंद का कहना है कि यह किताब नफरत फैलाने वाली है। अब गौर कीजिए। विगत 20 वर्षों में इस किताब से कितनी नफरत फैली? क्या जिन लोगों ने यह किताब पढ़ी, वे किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष से नफरत करने लगे? ऐसा एक भी उदाहरण नहीं। अगर नफरत फैलाने वाली किताबों के प्रति इतना ही क्रोध है, तो सबसे पहले कुरआन को जला देना चाहिए। कुरआन के कारण विश्व में जितना नफरत फैला, शायद किसी और किताब के कारण नहीं। जिहाद से लेकर शरीयत कानून लागू करने तक सारी खुराफातें कुरआन के कारण ही हुई और हो रही हैं। कोई साधारण व्यक्ति भी बता सकता है कि अगर अलग-अलग धर्म व धर्मग्रंथ नहीं होते तो मानव-मानव के बीच इतनी नफरत नहीं होती। सबको पता है कि धर्म और धर्मग्रंथों की आड़ लेकर इस धरती पर जितना कत्लेआम किया गया, दूसरी और किसी भी वजह से नहीं। एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय का शोषण भी धर्मग्रंथों की आड़ लेकर ही किया गया।
ऐसे में सलमान पर विवाद करना सांप्रदायिक कट्टरता व गंदी राजनीति के अलावा कुछ नहीं।

सुधीर

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