मंगलवार, 24 जनवरी 2012

विवेक पर धर्मांधता की जीत

 जयपुर लिट फेस्ट के बहाने एक बार फिर उजागर हुआ कि भारत आधुनिक युग के साथ कदमताल नहीं कर सकता और यहां बड़ा से बड़ा फैसला वोटबैंक को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। यह भी साबित हो गया कि कट्टरता और धर्मांधता के आगे विवेक की कोई अहमियत नहीं है। सरकार ने भी यह संदेश दे दिया कि उसके लिए वोट बैंक पहली प्राथमिकता है। मुस्लिम रहनुमाओं ने भी यह जताया कि कई मुल्कों की बरबादी का तमाशा देखने के बावजूद वे मजहबी कट्टरता नहीं छोड़ने वाले हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से अधिक बड़ा साबित हुआ कठमुल्लापन।
आखिरकार सलमान रुश्दी जयपुर लिट फेस्ट को संबोधित नहीं कर पाये। जिस तरह क्रमबद्ध ढंग से उनका कार्यक्रम रद्द किया गया, वह भी अद्भुत है। पहले उनके आगमन पर विरोध किया गया। उन्हें उन्हें कभी मुस्लिम समुदाय का भय दिखाया गया, तो कभी जान से मारने वाली कथित खुफिया रिपोर्टों से भयभीत करने का प्रयास किया गया। इसके बावजूद जब अंत में वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये समारोह को संबोधित करने की तैयारी की गयी, तो इसे लेकर भी बवाल खड़ा कर दिया गया। आखिरकार गंदे नेताओं और मुल्लाओं के गठजोड़ के आगे बौद्धिकता हार गयी।
रुश्दी का भारत न आना और फिर उनका वीडियो कांफ्रेंसिंग का रद्द होना हमारे सामने कई सवाल खड़ा कर गया। क्या अब कोई किताब लिखने से पहले मुल्लाओं, पंडों अथवा पादरियों से इजाजत लेनी होगी? क्या किसी कार्यक्रम को आयोजित करने से पहले कट्टरपंथियों से अनुमति लेनी होगी? क्या अब भारतीय राजनीति को धर्मांध लोग संचालित करेंगे? आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा?
यह बात तो पूरी तरह साफ हो चुकी है कि सलमान रुश्दी का विरोध राजनीतिक व धार्मिक कट्टरता के कारण हुआ। करीब 25 साल पहले जिस किताब पर बैन लगा, उस पर आज विवाद छिड़ना और क्या साबित करता है? सैटेनिक वर्सेस प्रकाशित होने के बाद से सलमान कई बार भारत आये और कुछ नहीं हुआ। इस बार संयोगवश सलमान की यात्रा के समय पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव का बिगुल बजा हुआ है। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने मौके को ताड़ा और अपनी आवाज उठाने लगे। सियासी बिरादरी मुसलमानों के कथित रहनुमाओं को खुश करने में जुट गयी। उन्हें इसका भी ख्याल न रहा कि वोट व कट्टरता के अलावा थोड़ी सी जगह बौद्धिकता के लिए भी रखें।
बात केवल सलमान के न आने का ही नहीं है। सरकार ने कट्टरपंथियों की हां में हां मिलाकर ‘अप्रत्यक्ष ही सही’ उन्हें शह दिया है और उनका हौसला बढ़ाने वाला काम किया है। जाहिर सी बात है कि कट्टरपंथी इसे अपनी जीत व उपलब्धि के रूप में देखेंगे।
हालांकि कट्टरपंथियों के आगे भारतीय नेताओं की बेचारगी कोई पहली बार उजागर नहीं हुई है। हर दल वोट के नफा नुकसान को देखते हुए कोई भी फैसला लेता है। यही वजह है कि प. बंगाल में तसलीमा नसरीन की किताब पर वामपंथी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। हैदराबाद में तसलीमा पर कट्टरपंथियों ने सरेआम हमला किया और सरकार मुंह बाये देखती रही। मुल्लाओं को खुश करने के लिए भारत सरकार ने तसलीमा नसरीन जैसी प्रतिभाओं को स्थायी वीजा देने से कतराती रही है। मकबूल फिदा हुसैन की पेंटिंग प्रदर्शनी पर हमला किया गया है। रामानुजन के निबंधों को किताबों से हटवा दिया गया।
सारी बातें आस्था को चोट पहुंचाने के नाम पर की गयीं। हालांकि कोई यह नहीं बताता कि आस्था को चोट पहुंचाने की सीमा रेखा क्या है? यहां तक कि ग्राहम स्टेंस को उनके दो बच्चों को जिंदा जलाये जाने को भी आस्था पर चोट पहुंचाने का कारण देकर उचित ठहराने वाले लोग मिल जाएंगे।
आज सलमान रुश्दी के लेखन को इस्लाम के खिलाफ माना जा रहा है। कल को गये मुस्लिम लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना इस्लाम के खिलाफ माना जाएगा क्योंकि ढेरों मुस्लिम कट्टरपंथी इसे इस्लाम के खिलाफ मानते हैं। महिलाओं को बुर्के से बाहर रहना भी इस्लाम के खिलाफ है। पुरूषों का दाढ़ी बनवाना भी इस्लाम के खिलाफ है। एक मुल्ला ने कुछ दिन पहले अभिनय करना आदि भी इस्लाम के खिलाफ बताया था। अगर किसी मुसलमान को एक ही शादी करने के लिए कहा जाए तो इसे भी इस्लाम के खिलाफ ठहराया जा सकता है। इस्लाम के अनुसार, इस्लाम सभी धर्मों से अधिक महान धर्म है और एक समय ऐसा आयेगा जब सभी लोग मुसलमान बन जाएंगे। ऐसे में सभी धर्मों को बराबर या महान कहना भी इस्लाम के खिलाफ है। इसी में अपनी सुविधा, विवेक और राजनीति के हिसाब से जोड़-घटाव कर लिया जाता है। विवेकशील लोग मानव समुदाय के विकास व हितों का ख्याल रखकर फैसला करते हैं, वहीं मुल्ला अपना दबदबा कायम रखने और नेता अपने वोट के हिसाब से।
गौरतलब है कि सारे कठमुल्ला संविधान का भी हवाला देते रहते हैं कि उनकी आस्था व विश्वास पर कोई चोट नहीं होनी चाहिए। कोई उनसे यह तो पूछे कि हमारे संविधान के अनुसार अगर आस्था पर चोट पहुंचती है तो उसके लिए न्यायालय जाने की व्यवस्था है। परंतु, अभी तक कोई भी व्यक्ति सलमान रुश्दी की भारत यात्रा पर प्रतिबंध लगाने के लिए और उन पर अपनी धार्मिक भावना को चोट पहुंचाने के मामले को लेकर कोर्ट नहीं गया। इसका तो यह भी मतलब है कि मुल्लाओं को न्यायालय पर भरोसा नहीं या फिर वे न्यायालय को इस काबिल नहीं समझते।
एक बात और है कि तुर्की जैसे मुस्लिम राष्ट्र में सैटेनिक वर्सेस पर कोई प्रतिबंध नहीं है। यहां तक सिरिया में भी इस किताब पर से बैन हटा लिया गया है। फिर भारत में यह कट्टरता क्यों? क्या हमारे यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिरिया जैसे देशों से भी गयी गुजरी है?
बहरहाल अभी तो कट्टरता गंदी राजनीति का शह पाकर फतह हासिल कर चुकी है।
सुधीर

कोई टिप्पणी नहीं: