शनिवार, 28 जनवरी 2012

निराश करता न्याय

सुरेश कलमाड़ी
हसन अली

येद्दयुरप्पा


 पिछले साल की शुरुआत ही भ्रष्टाचार विरोधी आवाज और उम्मीद के साथ हुई। 2जी के मामले में सीएजी की रिपोर्ट पर हंगामा होते रहा। कॉमनवेल्थ गेम्स में हुई घपलेबाजी भी सबके सामने आ गयी। अन्ना का आंदोलन देश का आंदोलन बन गया। ए राजा, सुरेश कलमाड़ी, कनिमोझी, अमर सिंह, येदयुरप्पा, हसन अली आदि अति महत्वपूर्ण व्यक्ति आलीशान और राजसी आवास से जेल में पहुंच गये। लगा कि देश में आज भी न्यायपालिका यह साबित कर रही है कि कानून से उूपर कोई नहीं है। हर गुनाहगार को सजा भोगनी होगी। परंतु, साल के अंत होते-होते दृश्य बदलने लगा।
अमर सिंह, कनिमोझी, येदयुरप्पा, सुरेश कलमाड़ी, हसन अली आदि जेल से फिर अपने राजसी आवास लौटने लगे। ये उन जेलों से लौट रहे थे, जहां आज भी साधारण अपराधी वर्षों से जेलों में बंद हैं। फर्क इतना है कि कनिमोझी आदि के पास पैसे की जो ताकत है, वह गरीब लेकिन छोटे अपराधियों के पास नहीं है।
साल के अंत में फिर साबित होने लगा कि न्याय पाने में पैसे का अहम रोल है। कनिमोझी आदि के पास महंगे वकील रखने के पैसे हैं। महंगे वकील आखिर महंगे यूं ही तो होते नहीं। बात केवल वकीलों तक की ही नहीं है। कनिमोझी आदि व्यवहार न्यायालय के बाद उच्च न्यायालय और उसके बाद उच्चतम न्यायालय तक से गुहार लगा सकते हैं। इसके लिए उनके पास करोड़ों की जायदाद है। देश का खजाना लूटने का एक बड़ा फायदा यह भी है कि आप बड़ा वकील कर सकते हैं और सुप्रीम कोर्ट तक जा सकते हैं।
दूसरी ओर साधारण अपराधों में जेलों में बंद लोगों के पास महंगे तो क्या कई के पास सस्ते वकील रखने के भी पैसे नहीं हैं। ये बेचारे न्याय के बड़े मंदिरों तक कैसे पहुंच पाएंगे?
तो यह साफ दिखा कि भूख मिटाने की खातिर रोटी चुराने वाले जेलों में सड़ते रहेंगे। परंतु, देश को लूटने वालों को जमानत मिल जाएगी। क्या जेलों में बंद उन छोटे अपराधियों को कोई यकीन दिला सकता है कि देश में न्याय सबके लिए बराबर है?
यह कहा जा सकता है कि देश के लुटेरों को अभी सिर्फ जमानत मिली है। उन्हें बरी नहीं किया गया है। उन पर मुकदमा चलेगा और दोषियों को सजा मिलेगी। परंतु, यह सिर्फ कहने-सुनने की बातें प्रतीत होती हैं। यह मुकदमा कितने दिन चलेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। अब तक का रिकॉर्ड बताता है कि न्यायालय की कमजोरियों का फायदा हमेशा ही देश के लुटेरों को मिलते रहा है। लालू यादव, सुखराम आदि इसके बड़े उदाहरण हैं। सुप्रीम कोर्ट तक उनका दोष साबित होते-होते उनकी पूरी उम्र शानोशौकत में बीत जाती है।
चंद दिनों पहले देश में तीन-चार जगह मिलती-जुलती घटनाएं हुईं। ये घटनाएं मारपीट की थीं जो कि समाचारों की सुर्खियों में रहीं। पहले टीम अन्ना के सहयोगी प्रशांत भूषण के साथ उनके चैंबर में मारपीट की गयी। दूसरी घटना में कांग्रेसी युवराज को काले झंडे दिखाने वाले युवाओं की पिटाई केंद्रीय मंत्रियों ने की। तीसरी घटना में एक युवक ने केंद्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार को थप्पड़ मारा। चौथी घटना में पंजाब में सत्तारूढ़ अकाली दल के समर्थक एक सरपंच ने एक शिक्षिका के साथ बदतमीजी और मारपीट की।
सारे गुनाह लगभग मिलते-जुलते हैं लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से कार्रवाई अलग-अलग हुई। प्रशांत भूषण के मामले में आरोपित को अगले ही दिन जमानत हो गयी। उनके जमानत के दिन प्रशांत भूषण के और भी कई समर्थकों के साथ मारपीट हुई, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। दूसरी घटना में काफी देर के बाद केंद्रीय मंत्रियों पर प्राथमिकी ही दर्ज हो सकी। उन मंत्रियों ने सरेआम गुंडई की थी। इस हिसाब से पुलिस स्वतः भी प्राथमिकी दर्ज कर सकती थी। प्राथमिकी दर्ज होने के बाद भी केंद्रीय मंत्रियों को अदालत को कौन कहे, थाने का भी मुंह नहीं देखना पड़ा। तीसरी घटना में पवार को थप्पड़ मारने का आरोपित आम आदमी था। उसे 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। चौथी घटना में आरोपित सरपंच सत्तारूढ़ दल का समर्थक था। उसे थाने से ही जमानत मिल गयी।
चारों में सबसे गंभीर अपराध केंद्रीय मंत्रियों ने किया था। हजारों जनता, पुलिसकर्मियों व मीडियाकर्मियों की उपस्थिति में निहत्थे युवक की उन्होंने धुनाई की थी। घटना का कारण भी खुद को राहुल की नजर में सबसे बड़ा खिदमतगार साबित करना था। परंतु, उनका कुछ नहीं बिगड़ा। कानून और संविधान किताबों में ही रह गये। दूसरी ओर, महंगाई से तंग एक आक्रोशित व्यक्ति ने खुद को जनता के सेवक कहे जाने वाले और भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोपों से घिरे व गरीबी का मजाक उड़ाने वाले नेता को एक थप्पड़ मारा था। इस पर कानून तुरंत गंभीर हो गया और आरोपित को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। इसी तरह एक शिक्षिका के साथ सरेआम मारपीट और बदतमीजी करने वाले सरपंच को थाने से छोड़ दिया गया। यह कानून की मजबूरी थी या उसका दोगलापन?
चारों मामलों को देखें तो साफ पता चलता है कि आरोपित की हैसियत देखकर कार्रवाई की गयी। ऐसा कोई नया नहीं है। कानून की नजर में सभी लोग बराबर हैं, यह जुमला आम आदमी को धोखा देने के लिए बनाया गया मालूम होता है। उपरोक्त उदाहरण नाइंसाफी का पहला कदम है। कानून का रवैया आगे और भी असमानता से भरा है।
एक सामान्य उदाहरण देखें। दो व्यक्ति बिना टिकट रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे हैं। एक पैसे वाला आदमी है जबकि दूसरा पैसे पैसे का मोहताज है। टीटी दोनों को पकड़ता है। पैसे वाला आदमी जुर्माना भरकर घर जाएगा जबकि गरीब आदमी जेल जाएगा। कहां हुई बराबरी?
यहां तो कानून खरीदने की शुरुआत अपराध करने से पहले से ही शुरू हो जाता है। पुलिस और संबंधित अधिकारियों को खरीद लिया जाता है। मान लिया कि पुलिस को पहले नहीं खरीदा जा सका तो बाद में उसे खरीदने की कोशिश होती है। जज प्रायः जमानत देने में पुलिस डायरी का सहारा लेते हैं, जो कि प्रायः पैसे पर लिखवाया जाता है। प्रायः धनी व्यक्ति अनुसंधानकर्ता पुलिसकर्मी को मुंहमांगी रकम देकर पुलिस डायरी में अपना अपराध हल्का करवा लेता है। कानून का कहर ऐसे में गरीबों पर ही टूटता है। जेसिकालाल हत्या केस का उदाहरण सबके सामने है। पुलिस ने अहम साक्ष्यों को या तो मिटा दिया या फिर नजरअंदाज कर दिया। कई गवाह भी बिक गये। अदालत ने आरोपितों को बरी कर दिया। बाद में जब मीडिया और आम लोगों ने कानून पर थू थू करना शुरू किया तो अदालत को अपनी गलती का अहसास हुआ। जेसिकालाल की तरह कितने ही मुकदमें खत्म हो गये होंगे। जेसिकालाल केस तो हाईप्रोफाइल हो जाने के कारण चर्चा पा गया और फिर शुरू हो गया।

निठारीकांड जैसा बड़े मामले में भी कानून पर पैसे का प्रभुत्व दिखा। मुख्य आरोपित पंढेर को छुट्टी मिल गयी जबकि उसका प्यादा सुरेंद्र कोली सलाखों के भीतर ही रह गया। जाहिल व्यक्ति भी इसे जान चुका है कि बिना पंढेर के सुरेंद्र कोली अकेले सैकड़ों मासूमों की जिंदगी से नहीं खेल सकता था। पंढेर के घर में इतनी हत्याएं और दुष्कर्म बिना उसकी सहमति व सहयोग के नहीं हो सकती थी। फिर यह बात विद्वान न्यायधीश को क्यों नहीं सुझी? ऐसे असंख्य मामले भरे पड़े हैं।
खुद उूपरी अदालतें कई बार दुहरा चुकी हैं कि निचली अदालतों में भ्रष्टाचार है। सवाल है कि उस भ्रष्टाचार को रोकने के लिए आज तक क्या प्रयास किया गया। निचली अदालतों में भ्रष्टाचार स्वीकारने का मतलब है कि निचली अदालतों में न्याय की खरीद-बिक्री होती है। फिर इस न्याय तंत्र पर कोई कितना विश्वास कर सकता है?
आवश्यकता इस बात की है कि कोई ऐसा सिस्टम बने जिससे गरीब नागरिकों की पहुंच भी महंगे वकीलों व उच्चतम न्यायालय तक हो सके। साथ ही गुनाहगार चाहे जितना धनी या प्रभावशाली हो, उसे कानून का खौफ हो।
सुधीर

1 टिप्पणी:

Atish Kumar ने कहा…

Sir, India Se Corruption Ko Door Karna Utna Hi Namumkin Hai, Jitna DoN Ko Pakadna.........Isliye India Se Corruption Kabhi Hat Sakti Hai, Aisa Khyal Karna Bhi Band Kar Dijiye Kyunki Jo Ho Nahi Sakta Uske Baare Me Sochkar Khud Ko Takleef Dene Se Achchha Hai Iske Baare Hi Socha Hi Na Jaaye...