बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

सोनिया स्टाइल की इमरजेंसी

यह सोनिया स्टाइल की इमरजेंसी है। इसे लोकतंत्र का खोल पहनाकर लागू किया जा रहा है। पूरी रणनीति के तहत इसे किस्तों में लागू किया जा रहा है। इसकी शुरुआत काफी पहले हो चुकी थी। अब इसका रूप साफ दिखने लगा है। सोनिया के काफी विश्वस्त सिपहसलार कपिल सिब्बल ने साफ कर दिया कि सरकार की मंशा फेसबुक, ट्वीटर गुगल आदि सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सेंसरशिप लगाने की है। इसके पहले अंबिका सोनी सलमान खुर्शीद अन्ना आंदोलन के समय मीडिया पर लगाम लगाने की बात कह चुके हैं।

सिब्बल ने सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सेंसरशिप लगाने की जो बात मजबूरी में सार्वजनिक की है, पहले उनकी कोशिश इनके मालिकों के साथ समझौता कर चुपचाप सेंसरशिप लगाने की थी। कंपनियों ने जब उनकी बात नहीं मानी तो उन्हें नयी रणनीति के तहत इसे दूसरी तरह से पेश करना पड़ा। फिर भी, कपिल सिब्बल ने सेंसरशिप लगाने के पीछे जो तर्क दिये हैं, वे बेहद बचकाना और हास्यास्पद हैं।
इस मुद्दे पर उन्होंने पत्रकारों को जो मुख्य कारण गिनाया, वह था कि इन साइटों के माध्यम से सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काया जा रहा है। क्या कोई बताएगा कि फेसबुक या ट्वीटर के कारण कहां-कहां सांप्रदायिक दंगे हुए? अभी तक देश में जितने भी दंगे हुए, उनमें फेसबुक की क्या भूमिका थी? सच तो यह है कि इन सोसल नेटवर्किंग साइटों के प्रचलन के बाद देश में दंगे हुए ही नहीं।
कपिल सिब्बल का दूसरा तर्क यह है कि इन साइटों पर नेताओं की छवि बिगाड़ी जा रही है। तो क्या सोनिया सरकार यह मानती है कि उसके नेताओं की छवि काम के बजाय फेसबुक की प्रतिक्रिया से बन रही है? दूसरी बात कि फेसबुक पर जो बात डाली जाती है, वह आम आदमी की भावना होती है। क्या सरकार आम आदमी की भावना से भयभीत हो रही है? फेसबुक यह तो वही बात हुई कि सरकार की तारीफ करो तो ठीक। अगर आलोचना करो तो वह चरित्रहनन की बात मानी जाएगी।
बात सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने अथवा किसी की छवि खराब करने की नहीं है। बात है- सरकार की बखिया उधेड़ना। दरअसल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स अभिव्यक्ति और विचारों को स्वतंत्र रूप से प्रकट करने और अपने विचारों को के बराबर खर्च में हजारों-लाखों लोगों तक पहुंचाने का सबसे बेहतर जरिया है। सबको पता है कि फेसबुक ट्वीटर के जरिए अपना संदेश पल भर में पूरी दुनिया में पहुंचाया जा सकता है। एक तरह से कहें तो फेसबुक, ट्वीटर आदि ने दुनिया में प्रत्येक इंटरनेट उपभोक्ता को एक पत्रकार बना डाला। ऐसा पत्रकार, जिसके उूपर तो संपादक का निर्देश है, विज्ञापन कंपनी या विज्ञापन देने वाली सरकार का दबाव और ही खबरों को मसालेदार बनाने की व्यावसायिक मजबूरी। यह भी बहुत खास बात है कि किसी भी मीडिया हाउस के पास यह दम नहीं है कि प्रत्येक मुद्दे पर हजारों लोगों की राय ले सके। ऐसे में चैनलों और अखबारों में जो जनता की राय कही जाती है, वह महज कुछ चुनिंदा लोगों की राय होती है। उसमें भी काफी कुछ संपादित कर दिया जाता है। फेसबुक या ट्वीटर पर दी गयी राय वास्तव में आम जनता की राय होती है।
यही नहीं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स आम जनता को अपना गुब्बार निकालने का भी अवसर प्रदान करता है। मेरा तो यह साफ मानना है कि सरकार फेसबुक ट्वीटर के कमेंट्स पर प्रतिशोधात्मक कार्रवाई करने के बजाय उसकी इबारत पहचान ले तो उसे आने वाले एक सौ वर्षों तक कोई भी हिला नहीं पाएगा। सरकार को इस बात से खुश होना चाहिए कि उसे मुफ्त में एक ऐसा जरिया मिल गया, जो उसकी नीतियों पर आम जनता की प्रतिक्रिया को निष्पक्ष दिखाता है।
परंतु, अहम बात यह है कि सरकार को जनता की इच्छा से लेना-देना नहीं। सोनिया सरकार की पूरी शक्ति अभी इस बात पर लगी हुई है कि उसके मंत्री घोटाले करने के बावजूद कैसे बचे रहें। वह अखबारों चैनलों को तो काफी हद तक मैनेज कर सकती है, लेकिन फेसबुक और ट्वीटर के करोड़ों स्वतंत्र पत्रकारों को मैनेज कर पाना नामुमकिन है।
असली बात यह है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स कई बार सोनिया सरकार की तानाशाही और भ्रष्टाचार को संरक्षित करने में गले की फांस बन गयी हैं। अन्ना आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अन्ना के साथ जो देश भर में आंदोलन फैला, उसमें सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सबसे बड़ा योगदान रहा। यहां तक कि अन्ना की गिरफ्तारी आदि के मसले पर भी सरकार चैनलों पर नंगा होने से बचती रही, लेकिन फेसबुक ट्वीटर ने उसे सिर्फ नंगा कर दिया बल्कि उसका मजमा भी लगा दिया।
रामदेव और अन्ना के आंदोलन के उदाहरण से साफ पता चल जाएगा। रामदेव के पास अन्ना के मुकाबले अधिक संसाधन था। रामदेव के पास कार्यकर्ताओं समर्थकों की संख्या भी अन्ना के मुकाबले काफी अधिक थी। मीडिया ने दोनों को बराबर कवरेज दिया। यहां तक कि अन्ना पर आंदोलन शुरू करने से पहले ही पुलिसिया कार्रवाई हुई और उन्हें घर से ही ले जाकर जेल में डाल दिया गया जबकि रामदेव को चार दिन सरकार ने भी समर्थन किया था। फिर भी रामदेव के आंदोलन को सरकार ने कुचल दिया और अन्ना का आंदोलन विकराल होता गया। यहां तक कि पूरी राजनीतिक बिरादरी को एक हो जाने के बावजूद सरकार को झुकना पड़ा। असली फर्क यही था कि टीम अन्ना ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भरपूर इस्तेमाल किया था जबकि रामदेव ऐसा नहीं कर सके। सोशल साइट्स की मदद से अन्ना का आंदोलन पूरी दुनिया का आंदोलन बन गया जबकि रामदेव का आंदोलन उनके समर्थकों प्रशंसकों तक ही सीमित रहा।
यह बात सरकार के समझ में पूरी तरह चुकी है। उसे अपनी मनमानी करने में फेसबुक आदि दुश्मन साबित हो रहे हैं। जिस तरह से यह सरकार भ्रष्टाचार में डूब चुकी है, उससे बचने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाना आवश्यक हो गया है।
इससे पूर्व अन्ना आंदोलन के समय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने समाचार माध्यमों को चेतावनी के लहजे में जिम्मेदारी तय करने की बात कही थीं। यह एक तरह से चेतावनी थी कि सरकार के खिलाफ न्यूज चलाओ नहीं तो आपके खिलाफ कानून बनाये जा सकते हैं।
सोनिया और उनके सिपहसलार अच्छी तरह से जानते हैं कि इंदिरा गांधी की तरह देश पर आपातकाल थोपना अब संभव नहीं है। परंतु, वे आपातकाल थोपना चाहते हैं, यह दिखाते हुए कि ऐसा लोकतंत्र के तहत किया जा रहा है। गौर फरमाएं-
रामदेव के आंदोलन में आधी रात को सोती योग करती महिलाओं पर लाठीचार्ज करवाया गया। रामदेव को 24 घंटे के अंदर महान देशभक्त और महायोगी से देशद्रोही और भयंकर अपराधी साबित किया जाने लगा। बालकृष्ण से वार्ता विफल होते ही उन्हें विदेशी घुसपैठिया साबित किया जाने लगा। बिना कोई दोष बताये अन्ना हजारे और उनके साथियों को उनके घर से ही गिरफ्तार कर लिया गया। मीडिया पर लगाम लगाने की बात कही जाने लगी। अरबिंद केजरीवाल को कानूनी नोटिस भेज दिया गया। पूरी सरकारी मशीनरी को टीम अन्ना और सरकार की आलोचना करने वालों के पीछे लगा दी गयी। सरकार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज के खिलाफ प्रतिशोधात्मक कार्रवाई की जाने लगी। फेसबुक ट्वीटर पर सेंसरशिप लगाने की तैयारी होने लगी। सरकार की शर्त मानने से इनकार करते ही गुगल को आयकर का नोटिस भेज दिया गया। कई नेताओं महत्वपूर्ण व्यक्तियों के फोन टेप करने का मामला भी प्रकाश में आया है। संसद चलने के दौरान ही कैबिनेट में फैसला कर बिना संसद को जानकारी दिये देश में खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी गयी। गैर कांग्रेस शासित राज्यों की बातें अनसुनी की जा रही हैं। कांग्रेस के युवराज को काले झंडे दिखाने वाले युवक की कांग्रेसी गुंडों ने पिटाई की, फिर भी किसी का एक बाल भी बांका नहीं हुआ।
इस तरह की अनेक बातें हैं, जो बताती हैं कि हालात इमरजेंसी के ही हैं। कार्रवाई भी उतनी ही क्रूरता से की जा रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि यह इंदिरा नहीं सोनिया स्टाइल की इमरजेंसी है।
sudhir

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