
आलोचक सबसे पहले तो यह भूल ही गये कि इस अनशन को तोड़ने के लिए देश की 23 बड़ी हस्तियों ने आग्रह किया था। इन हस्तियों में वैसे नाम शामिल हैं, जिन्हें देश अपने राजनेताओं से अधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है। क्या इनका आग्रह ठुकरा देने से बात बन जाती? साथ ही, क्या इनका आग्रह ठुकराना आलोचना का विषय नहीं बनता?
सरकार ने आंदोलनकारियों के प्रति इस बार जो रवैया अपना रखा था, उससे तो साफ जाहिर है कि अनशनकारियों की मौत भले ही हो जाये, सरकार नहीं मानती। यह भी साफ हो चुका है कि सत्ता में कांग्रेस रहे या भाजपा, भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कडे़ कानून नहीं बनाने वाली है, क्योंकि अपने ही पैर पर कौन कुल्हाड़ी मारना चाहता है। यह सबलोग देख चुके हैं कि कांग्रेस ने अनषन के पहले ही दिन वहां अपने राहुल ब्रिगेड से हमला करवाया था। बहरहाल, यह देखना है कि टीम अन्ना के पास और क्या रास्ते थे?
एक तो यह था कि अनशन में अपनी जान दे दी जाये और उसके बाद जो हो। दूसरा यह कि अनशन की जिद पर रहें और मणिपुर की इरोम शर्मिला की हालत में जीवन बितायें। पुलिस जबर्दस्ती ले जाये और नाक से भोजन कराकर जिंदा रखे।
तीसरा उपाय यह था कि आंदोलन खत्म कर देश और जनता को उसकी हालत पर छोड़ दिया जाये। यह मान लिया जाये कि इस देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ नहीं हो सकता। चुपचाप लूट का तमाशा देखें और अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल सरकार की चापलुसी में कर पुरस्कार प्राप्त करें। और नहीं तो अरूणा राय की तरह सलाहकार समिति की सदस्य ही बन जायें।
चैथा सबसे अहम विकल्प था। हिंसक क्रांति करने का। देश की स्थिति और राजनेताओं के रवैये को देख यह लगने लगा है कि इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा। आखिर जब शांतिपूर्ण आंदोलन से सरकार न सुने, तो जनता क्या करे? जब पक्ष और विपक्ष दोनों ही देश को लूटने में लगे हों, वहां सुधार की गुंजाइश कहां बचती है? जनता को जब सांपनाथ और नागनाथ में से एक को चुनने के लिए कहा जाये, तो सिवाय हिंसा के और क्या किया जा सकता है? यह वह विकल्प था, जिसपर आज नहीं तो कल देश को शायद आना पड़े। फिर भी इससे जहां तक हो सके, बचा जाना चाहिए। देश तो वैसे इसी कुर्बानी का इंतजार कर रहा है। बड़ी संख्या में लोग मारे जाएं। देशभक्त भी और देश के लुटेरे भी। लूटने वालों को जहां तक संभव हो खत्म कर दिया जाये। जब सड़े गले धर्म के लिए हिंसा हो सकती है, तो देश के लिए क्यों नहीं?
लेकिन टीम अन्ना ने इन सारे विकल्पों से हटकर पाचवां विकल्प चुना। राजनीतिक विकल्प देने का। यह अनोखा नहीं था, पर अप्रत्याशित जरूर था। अन्ना और उनके सहयोगी अभी तक कहते रहे हैं कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। वे सिर्फ आंदोलन करेंगे। हालांकि जब वे देश के सभी पार्टियों को भ्रष्ट बताते तो उनसे कई बार राजनीतिक विकल्प देने को जरूर कहा गया। दिलचस्प है कि टीम अन्ना को सबसे अधिक राजनीति में आने और चुनाव लड़ने की चुनौती देने वाले कांग्रेस के नेता ही रहे हैं। जब टीम अन्ना चुनाव लड़ने को तैयार हुई, तो वे हास्यास्पद बयानबाजी कर रहे हैं।
चाहे जो हो, राजनीतिक विकल्प की जरूरत तो थी ही। आखिर जब सभी नेता एक ही थैली के चट्टे बट्टे हों तो फिर रास्ता की और क्या बचता है? सोसल मीडिया में भी यह सवाल खूब उठते रहा है कि अगर सभी दल भ्रष्ट हैं तो टीम अन्ना क्या चाहती है? ऐसे में विकल्प की जरूरत तो थी ही। टीम अन्ना का अनशन तोड़ने के लिए जिन 23 हस्तियों ने आग्रह किया, उन्होंने साथ में राजनीतिक विकल्प देने का भी आग्रह किया था। ऐसे में अभी बेहतर यही है कि टीम अन्ना राजनीति में आये। हां, इस पर नजर जरूर रहेगी कि चुनावों में नेताओं के प्रपंच से बचने का वह क्या तोड़ निकालती है?
सुधीर
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