मुहम्मद
साहब ऐसी व्यवस्था कर गये थे कि उनके बाद इस्लाम का नेतृत्व खलीफा करेंगे और ये
सर्वसम्मति से चुने जाएंगे। इस तरह से उनके बाद उमर फारूक, अबू बकर और उसमान चुने गये।
उसमान की हत्या हो गई और उनके बाद हजरत अली खलीफा बने। अली मोहम्मद साहब की बेटी
फातिमा जोहरा के पति थे। उसमान के एक रिश्तेदार मुआबिया ने अली की खिलाफत को नहीं
माना और उसने सेना तैयार कर अली पर आक्रमण कर दिया। मुआबिया जीत भी गया। अली अगली
लड़ाई की तैयारी कर रहे थे कि एक हत्यारे ने उनका कत्ल कर दिया।
मुआबिया ने अपने बेटे यजीद को अगला खलीफा घोषित कर दिया। अली के दो
बेटे थे हजरत हसन और हजरत हुसैन। हसन पहले ही मर चुके थे। हुसैन बहुत बड़े विद्वान, इंसाफ पसंद, नेकदिल, ज्ञानी, दयालु, वीर और धार्मिक व्यक्ति थे।
दूसरी ओर यजीद स्वार्थी, क्रूर, विलासी और छल कपट में निपुण
था। वह बार-बार मदीने में रह रहे हुसैन से खुद को यानी यजीद को खलीफा स्वीकार करने
की शपथ लेने (बैयत) लेने का दबाव डालने लगा। हुसैन ने हर बार इंकार कर दिया।
कूफा के लोग हुसैन को खलीफा के रूप में देखना चाहते थे। वे यजीद के
अत्याचारों से परेशान थे। उन्होंने हुसैन से कई बार गुहार लगाई कि वे वहां आकर
खलीफा बनकर उन्हें यजीद के जुल्मों से बचाएं। फिर भी हुसैन खून-खराबे से बचने के
लिए वहां नहीं गये। कूफा के लोगों ने अंत में खुदा का वास्ता देकर उन्हें आने पर
मजबूर कर दिया। हुसैन ने खुद वहां पहुंचने से पहले अपने आने का संदेश अपने चचेरे •भाई मुसलिम से भेजा। उधर यजीद को खबर मिल चुकी थी कि हुसैन कूफा आने वाले हैं। वहां
के सूबेदार ओबैद बिन जियाद ने मुसलिम को अपने सैनिकों से घेरकर कत्ल कर दिया।
हुसैन को बुलाने वाले या तो जमीन-जायदाद के लालच में आकर चुप हो गये या फिर डर के
मारे छिपे रहे।
मदीना से हुसैन भी कूफा के लिए रवाना हुए। अपने 72 संबंधियों और सेवकों के
साथ। इनमें कई महिलाएं और शिशु भी शामिल थे। 18 दिन की यात्रा के बाद वे नाहनेवा के समीप कर्बला मैदान में पहुंचे।
कूफा के आमिल यानी गवर्नर ने उन्हें वहीं रोक दिया। यजीद ने महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों सहित 72 लोगों को पराजित करने के
लिए वहां 22 हजार
सैनिक भेज दिये। इनमें से छह हजार सिपाही को फरात नदी के पहरे पर लगाया गया कि
हुसैन को पानी नहीं लेने दिया जाये। तीन दिन बाद हुसैन के खेमे के लोग प्यास से
छटपटाने लगे।
हुसैन की सुलह और शांति की तमाम कोशिशों को यजीद के सेनापतियों ने
ठुकरा दिया। मोहर्रम की 10वीं
तारीख की सुबह से युद्ध शुरू हुआ। एक ओर वही 72 लोग और दूसरी ओर 22
हजार सैनिकों की फौज। हुसैन के पक्ष के जितने पुरुष से सभी लड़ते हुए
मारे गये। हुसैन के सात साल के भतीजे और हसन के नवजात पोते की भी हत्या कर दी गई।
हत्या के बाद उनके शवों के साथ भी दुर्गति की गई। सिर काटकर पैरों से उछाले गये।
मुहम्मद साहब के अनुयायियों ने ही उनके दामाद और फिर नाती और अन्य रिश्तेदारों को
मार डाला। कुछ ऐसे ही अत्याचार बाद में औरंगजेब ने गुरु तेगबहादूर व उनके साथियों
और गुरु गोविंद सिंह के बच्चों पर किया था।
हुसैन की महान शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है।
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