कर्बला की जंग से तो परिचित होंगे ही। यह
मोहम्मद साहब के नाती हजरत हुसैन और तब के खलीफा यजीद की सेना के बीच लड़ा गया था।
तीसरे खलीफा उसमान ने अपने संबंधी मुआबिया को अपने बाद खलीफा बना दिया। इस पर
मोहम्मद साहब के दामाद हजरत अली के साथ मुआबिया का युद्ध भी हुआ, लेकिन अली जीत नहीं सके। मुआबिया ने
अपने अंत समय में अपने अय्याश बेटे यजीद को खलीफा घोषित कर दिया। यजीद को हमेशा
हजरत अली के बेटे हजरत हुसैन से भय लगा रहता था। इस चक्कर में उसने हुसैन को हमेशा
के लिए रास्ते से हटाने की सोची। कूफा वालों की पुकार पर मदीना से कूफा जा रहे
हजरत हुसैन को यजीद की फौज ने कर्बला के मैदान के किनारे घेर लिया। हुसैन के साथ
बच्चे, बुजुर्ग और महिलाओं समेत कुल संबंधी और
सेवक मिलाकर 72 लोग थे, जिन्हें यजीद के 22
हजार सैनिकों ने घेर लिया था। पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
जब हुसैन को यजीद के सैनिकों ने घेर रखा था, उसी दौरान सेना के अधिकारी हुर हुसैन
से मिल गया था। यजीद की सेना में हुर सहित बहुत सारे लोग दिल से हुसैन के पक्ष में
थे। परंतु, लालच और यजीद के खौफ के कारण वे यजीद
के पक्ष में लड़े। हुर को यकीन था कि समझौते का कोई न कोई रास्ता निकल आयेगा और
हजरत हुसैन से युद्ध नहीं करना पड़ेगा। जब सुलह की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं तो
उसे रहा नहीं गया। वह हुसैन के पक्ष में हो गया। हुसैन के पक्ष से हुर ही सबसे
पहले यजीद की सेना से लड़ने गये थे। वे जितना बन सका लड़े। कइयों को मार डाला।
लड़ते-लड़ते उनका घोड़ा मारा गया तो हुसैन ने उनके लिए तुरंत दूसरा घोड़ा भेजा। हुर का
पूरा जिस्म तीरों से छलनी हो गया और आखिर गिर पड़े। उन्होंने हुसैन की गोद में अपना
दम तोड़ा।
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