कहा जाता है कि मनुष्य अपनी गलतियों की समीक्षा कर उसे सुधार कर नये आयाम तय करता है। परंतु, इनमें कई ऐसे भी होते हैं, जो अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय उसे बढ़ाते चले जाते हैं। ऐसे लोग लगातार रसातल की ओर जाते रहते हैं, फिर भी अपने चमकीले अतीत के कारण अहंकार में डूबे रहते हैं, जब तक कि उनका पूरा पतन न हो जाए या फिर उठने के सारे मौके गवां न दें। कुछ इसी रास्ते पर चल रहे हैं कभी बिहार में सामाजिक न्याय के मसीहा कहलाने वाले लालू प्रसाद यादव।
एक के बाद एक गलतियां और फिर उसे सही ठहराने का दुराग्रह। अन्ना प्रकरण में भी वे इसी रास्ते पर चलते रहे। जब पूरा देष जन लोकपाल के आंदोलन और अन्ना के समर्थन में उतरा हुआ था, वे अन्ना और जन लोकपाल के साथ-साथ आंदोलनकारियों का मजाक उड़ा रहे थे। यूं तो उनके बयान पहले से ही आ रहे थे, लेकिन संसद में उन्होंने मुंह खोला अन्ना की गिरफ्तारी के अगले दिन अर्थात् 17 अगस्त को। अपने पूरे बयान के दौरान लालू जन भावनाओं और भारतीय आदर्षों का मजाक उड़ाते रहे। हालांकि कहीं न कहीं उनका एक उद्देष्य कांग्रेस की नजदीकियां हासिल करना भी था।
उनके बयानों पर गौर करें। उन्होंने लोकसभा में कहा कि यह जन आंदोलन संसद की सर्वोच्चता के लिए चुनौती है। इससे लोकतंत्र कमजोर होगा। वे किसी भी कीमत पर भारतीय लोकतंत्र को कमजोर नहीं होंगे। अगर अन्ना और उनकी टीम को लगता है कि जनता उन्हें चाहती है तो वे चुनाव जीत कर आएं और कानून बनाएं। अन्ना और उनके सहयोगी भारतीय लोकतंत्र को खतरा पहुंचा रहे हैं। लालू ने कांग्रेस को लोकपाल बनाने के लिए सिविल सोसाइटी के साथ संयुक्त समिति बनाना भी भारी गलती करार दिया। और कई बातें उन्होंने अपनी छवि के अनुरूप कहीं।
लालू कांग्रेस की चापलुसी में भूल गये कि वे खुद एक जन आंदोलन से पैदा हुए नेता हैं। अगर 1974 का जन आंदोलन नहीं हुआ होता तो लालू को आज जानने वाले विरले ही होते। यहां जानना यह है कि उस जन आंदोलन से भारत का छटपटाता हुआ लोकतंत्र फिर से नया जीवन पा गया था न कि उसे खतरा पहुंचा था। लालू विधि से स्नातक हैं। अगर उन्होंने पढ़कर यह उपलब्धि हासिल की है तो वे बेहतर जानते होंगे कि भारतीय लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है, परंतु जनता उससे भी उपर है। जिन देषों की प्रेरणा लेकर भारतीय संविधान बनाया गया है, वहां भी जन भावनाओं का पूरा आदर किया जाता है। लालू के मुंह से लोकतंत्र की रक्षा की बात भी एक चुटकुले जैसी लगती है। वैसे लालू ने कभी भी बहुमत का आदर करना नहीं सिखा, नहीं तो आज वे इस हालत में नहीं पहुंचते।
पहले जब जनता ने उन्हें बहुमत दिया तो वे खजाने को अपना समझने लगे। जब वे 1997 में चारा घोटाला में फंसे तो पार्टी ने बहुमत से उन्हें अध्यक्ष पद छोड़ने का आग्रह किया। परंतु वह अपनी जिद पर अड़े रहे और पार्टी को तोड़ डाला। इसके बाद जब जेल जाने की बारी आयी तो पूरी पार्टी और समर्पित व योग्य नेताओं को नजरअंदाज कर अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। उस समय उन्हें लोकतंत्र की रक्षा का ख्याल नहीं आया था। प्रतिभाषाली कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाने के बजाय अपने सालों को वे विधायक व सांसद बनाते रहे। जिस कांग्रेस का विरोध कर नेता बने थे, सत्ता के लिए उसी कांगे्रस को पहलु में बिठा लिया। उस समय वही बता सकते हैं कि वे भारतीय लोकतंत्र को कितना मजबूत कर रहे थे।
लालू ने लोकसभा में अन्ना और उनकी टीम को चुनाव लड़ने की नसीहत दे डाली। उन्होंने अन्ना हजारे का पद व पहचान तक पूछा। लालू ने ऐसा कर अन्ना से कहीं अधिक लोकनायक जयप्रकाष नारायण और महात्मा गांधी का अपमान किया है। वे भूल गये थे कि लोकनायक के पास भी कोई पद नहीं था। जेपी ने कभी भारतीय लोकतंत्र में चुनाव नहीं लड़ा। अगर बिना निर्वाचित हुए देष के बारे में बोलना गुनाह है तो अन्ना से पहले गुनाहगार जयप्रकाष नारायण हैं और उनसे भी पहले महात्मा गांधी, विनोबा भावे आदि। दिलचस्प है कि संसद में अपने बयान के दौरान लालू ने जेपी का भी नाम लिया था।
लालू ने जन विरोधी व अपने समर्थकों को गुस्सा दिलाने वाला बयान पहली बार नहीं दिया है। इधर के दिनों में ऐसा लगता है मानो उनपर ऐसे बोल बोलने का दौरा पड़ गया है। हाल ही में महानायक अमिताभ बच्चन को अपने एक बयान में देष का सबसे अलोकप्रिय अभिनेता बता डाला। सभी जानते हैं कि आज भी भारत सहित सभी हिंदी भाषियों के दिलों पर अमिताभ बच्चन ही राज करते हैं।
अधिक दिन नहीं बीते, जब लालू ने रामदेव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। जातिवाद की राजनीति पर टिके लालू यह भी भूल गये थे कि जो जाति उनका सबसे बड़ा वोट बैंक है, रामदेव भी उसी जाति से आते हैं। रामदेव पर लालू के बयान का असर भी हुआ और बहुत सारे लालू समर्थक ही लालू के आलोचक बन गये। लालू को अभी रामदेव के चेहरे में आरएसएस का अक्ष नजर आता है। बहुत दिन नहीं हुए जब वे रामदेव के पतंजलि योगपीठ के उद्घाटन समारोह में रामदेव की चरणवंदना कर रहे थे।
लालू के इन बयानों से राजद के कार्यकर्ता भी हतोत्साहित हैं। कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित होने की एक और बड़ी वजह है कि जहां उन्हें लालू का साथ चाहिए, उन्हें नहीं मिल पाता। फारबिसगंज गोलीकांड से लेकर बियाडा मामले तक कार्यकर्ता खुद को नेताविहिन महसूस करते रहे।
देखना होगा कि लगातार सिमटते जा रहे लालू अपनी गलतियों को पहचानकर फिर से उठ खड़े होने का प्रयास करेंगे या फिर धीरे-धीरे अतीत का यह सबसे चमकीला सितारा गुमनामी के अंधेरे में खो जाएगा।
SUDHIR
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