रविवार, 27 नवंबर 2011

तीर्थस्थल : पाखंड के अड्डे




sonpur mela
सोनपुर- एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल, जो अब एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला के रूप में जाना जाता है। कहा जाता है कि वहां धार्मिक ग्रंथों में वर्णित वह घटना घटी, जिसमें हाथी को घडि़याल से बचाने के लिए भगवान विष्णु बचाने आये थे। यहां अब भी प्रतिवर्ष बहुत बड़ा मेला लगता है। परंतु, यहां लोग किसी भक्ति भावना से नहीं आते। यहां अब गज-ग्राह घटना के कारण लोग नहीं आते। अब यह तीर्थस्थल भक्ति के बजाय अश्लील थियेटर के लिए प्रसिद्ध है। वहां थियेटरों में अश्लीलता इस हद तक है कि उनमें महिलाओं को जाना प्रतिबंधित है। इन थियेटरों में दर्जनों लड़कियों को अधनंगी हालत में नचाया जाता है। दर्शक रात भर भद्दे कमेंट करते रहते हैं। ऐसी भी खबरें आती रही हैं कि कुछ खास दर्शकों से अधिक पैसे लेकर उन लड़कियों को नंगा नचाया जाता है। यह कई बार साफ हो चुका है कि इस पावन तीर्थस्थल में नंगी नाचने वाली लड़कियां मजबूर होती हैं। कुछ साल पहले प्रशासन ने एक बार थियेटरों पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसका इतना जोरदार विरोध हुआ कि मानो वहां थियेटर न होगा तो देवता भाग जाएंगे। ऐसा हंगामा हुआ मानो थियेटर न होने से सोनपुर की पवित्रता खत्म हो जाएगी।
कथा सम्राट प्रेमचंद ने शेख सादी की जीवनी में सादी की भारत यात्रा के एक प्रसंग का जिक्र किया है। शेख सादी कुछ दिनों तक सोमनाथ के मंदिर में रुके थे। उसी सोमनाथ के मंदिर में, जिसे हिंदू प्रेरक स्थल के रूप में देखते हैं। शेख सादी ने जो जिक्र किया है, उस पर गौर फरमाएं- शाम के समय मंदिर में आरती का भव्य आयोजन किया जाता था। पुजारियों का समूह आरती करता था। उस समय बड़ी संख्या में भक्तों की भीड़ वहां जमा होती थी। आरती के बाद मंदिर में स्थापित मूर्ति का दाहिना हाथ धीरे-धीरे उपर उठने लगता था और आशीर्वाद की मुद्रा तक उठते जाता था। भक्त इसे भगवान का चमत्कार मानते थे और जय-जयकार करते हुए खूब चढ़ावा चढ़ाते थे। वे इसे साक्षात भगवान का चमत्कार मानते थे। शेख सादी वहां के पुजारियों से आग्रह कर वहां कुछ दिन रहने की अनुमति ले लेते हैं। वे मूर्ति के हाथ उठने का रहस्य जानना चाहते थे। वे एक दिन मूर्ति के पीछे छिप गये। आरती के बाद उन्होंने देखा कि मूर्ति के साथ लगे पर्दे के पीछे दो पुजारी पहले से ही छिपे हुए थे। उनके हाथ में एक बारीक रस्सी थी, जिसका दूसरा छोर मूर्ति के दाहिने हाथ से बंधा था। आरती खत्म होते ही छिपे हुए पुजारी रस्सी धीरे-धीरे खिंचने लगते थे, जिससे मूर्ति का हाथ उठने लगता था। सादी ने सारी बातों का विस्तार से वर्णन करते हुए बताया है कि इस तरह से पुजारी भोले-भाले भक्तों को मूर्ख बनाकर अंधविश्वास फैलाते थे और बदले में खूब चढ़ावा भी पाते थे।
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ में भारत के सबसे बड़े तीर्थ और सबसे बड़े उत्सव की चर्चा की है- हरिद्वार के कुंभ की। गांधी के ही शब्दों में- यहां मैंने पांच पैरों वाली एक गाय देखी। मुझे तो आश्चर्य हुआ, किंतु अनुभवी लोगों ने मेरा अज्ञान तुरंत दूर कर दिया। पांच पैरोंवाली गाय दुष्ट और लोभी लोगों के लोभ की बलिरूप थी। गाय के कंधे को चीरकर उसमें जिंदे बछड़े का काटा हुआ पैर फंसाकर कंधे को सी दिया जाता था और इस दोहरे कसाईपन का उपयोग अज्ञानी लोगों को ठगने में किया जाता था। गांधी ने इस घटना से तुरंत पहले अपनी इस कुंभयात्रा की स्थिति पर दुख प्रकट किया है। वे लिखते हैं- श्रद्धालु हिंदू अत्यंत प्यासे होने पर भी ‘मुसलमान पानी’ के आने पर उसे कभी न पीते थे। ‘हिंदु पानी की आवाज आती तभी वे पानी पीते। आगे लिखते हैं- इन्हीं हिंदुओं को डाॅक्टर दवा में शराब दे, मांस का सत दे अथवा मुसलमान या इसाई कंपाउंडर पानी दे, तो उसे लेने में इन्हें संकोच नहीं होता और न पूछताछ करने की जरूरत होती है।
गांधी ने काशी की भी चर्चा की है। लिखते हैं- ‘संकरी, फिसलनवाली गली में से होकर जाना था। शांति का नाम भी नहीं था। मक्खियों की भिनभिनाहट तथा यात्रियों और दुकानदारों का कोलाहल मुझे असह्य प्रतीत हुआ।’ इसी जिक्र में आगे लिखते हैं- ‘वहां मैंने ठग दुकानदारों का बाजार देखा, जिसमें नये से नये ढंग की मिठाइयां और खिलौने बिकते थे।
मंदिर पहुंचने पर दरवाजे के सामने बदबूदार सड़े हुए फूल मिले। ...... । मैं ज्ञानवापी के समीप गया। वहां मैंने ईश्वर को खोजा, पर वह न मिला। इससे मैं मन ही मन क्षुब्ध हो रहा था। ज्ञानवीप के आसपास भी गंदगी देखी। दक्षिणा के रूप में कुछ चढ़ाने की मेरी श्रद्धा नहीं थी। इसलिए मैंने सचमुच ही एक पाई चढ़ाई, जिससे पुजारी पण्डाजी तमतमा उठे। उन्होंने पाई फेंक दी। दो-चार गालियां देकर बोले, ‘‘तू यों अपमान करेगा तो नरक में पड़ेगा।’’
मैं शांत रहा। मैंने कहा, ‘‘ महाराज, मेरा तो जो होना होगा सो होगा, पर आपके मुंह में गाली शोभा नहीं देती। यह पाई लेनी है तो लीजिए, नही ंतो यह भी हाथ से जाएगी।’’ ‘‘ जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए,’’ कहकर उन्होंने मुझे दो-चार और सुना दी। मैं पाई लेकर चल दिया। मैंने माना कि महाराज ने पाई खोयी और मैंने बचायी। पर महाराज पाई खोनेवाले नहीं थे। उन्होंने मुझे वापस बुलाया और कहा, ‘‘ अच्छा धर दे। मैं तेरे जैसा नहीं होना चाहता। मैं न लूं, तो तेरा बुरा हो।’’
मैंने चुपचाप पाई और लंबी सांस लेकर चल दिया।’ फिर गांधी ने लिखा- ‘किसी को भगवान की दया के बारे में शंका हो, तो उसे ऐसे तीर्थक्षेत्र देखने चाहिए। वह महायोगी अपने नाम पर कितना ढोंग, अधर्म, पाखंड इत्यादि सहन करता है?’
भारतीय सिनेमा के शोमैन राजकपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली तो याद ही होगी। उसमें उन्होंने तीर्थस्थलों की नंगाई सच्चाई को पूरी बेबाकी से पर्दे पर उभारा है। प्रसिद्ध तीर्थ वाराणसी में नायिका गंगा के साथ मंदिर का पुजारी मंदिर में ही बलात्कार करने का प्रयास करता है। यह भी दिखाया गया है कि कैसे काशी में भोलीभाली लड़कियों को वेश्यालय तक पहुंचाया जाता है। यह वाराणसी के लिए इतना सच है कि इसका विरोध करने की हिम्मत किसी ने भी नहीं की।
अच्छा, फिल्म की बात छोड़े। एक और किताब को देखें। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की सबसे प्रतिष्ठित पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय। दिनकर ने साफ-साफ लिखा है कि हमारे तीर्थस्थल पाप व व्यभिचार के अड्डे बन गये हैं।
देश का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल है अमरनाथ। वहां बर्फ से एक शिवलिंग जैसी आकृति बनती है, जिसे श्रद्धालु चमत्कार समझते हैं और पूरी श्रद्धा से उसकी पूजा करते हैं। उस शिवलिंग को बर्फानी बाबा कहते हैं। करीब एक महीने बाद वह बर्फ पिघल जाता है। माना जाता है कि शंकर जी अंतध्र्यान हो गये। इधर हाल के वर्शों में उस चमत्कार में एक ग्रहण लगने लगा है। इसे भक्तों की भीड़ से उत्पन्न उष्मा माने या फिर ग्लोबन वार्मिंग का प्रभाव, कथित शिवलिंग समय से काफी पहले ही पिघल जा रहा है। इससे भक्तों के मन में शिव की शक्ति के प्रति शंका होने लगी। इससे धर्म के ठेकेदारों को चिंता होने लगी। उन्होंने इसका उपाय निकाला। पिछले वर्ष एक बनावटी शिवलिंग बर्फानी बाबा की जगह पर रख दिया गया। लोग उसी की पूजा करके घर लौट आये। बाद में भेद खुला तो खूब हंगामा हुआ। श्रद्धा ने विवेक पर पर्दा डाल रखा है, नहीं तो लोग यह समझने का प्रयास करते कि जो शिवजी साधारण उष्मा के कारण अपने आकृति गलने से नहीं बचा पा रहे, वह दूसरों का कितना भला करेंगे?
बिहार व झारखंड का एक काफी प्रसिद्ध तीर्थ है- देवघर। सावन में लाखों की संख्या में भक्त वहां शिवलिंग पर जल चढ़ाने पहुंचते हैं। भक्तों की भीड़ खूब होने से वहां के पंडों की आमदनी भी खूब होती है। इससे पंडों का मन वहां काफी बढ़ा हुआ रहता है। वे जल चढ़ाने आये श्रद्धालुओं पर लगातार छड़ी व डंडों से प्रहार करते रहते हैं। जल चढ़ाने वालों में कई उच्च शिक्षित व्यक्ति भी होते हैं जबकि छड़ी-डंडा बरसाने वालों में अधिकांश पंडे साधारण पढ़े लिखे हैं। कई पंडे तो ऐसे भी हैं जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है और न ही कोई शास्त्र छुआ है। फिर भी वे अनपढ़ पंडे शिवभक्तों पर छड़ी व डंडे बरसाते रहते हैं।
दक्षिण भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जहां आठ से 50 वर्ष की उम्र तक की महिलाओं का जाना साफ तौर पर मना है। बताया जाता है कि इन देवताओं को स्त्रियों के मासिक स्राव से नफरत है। इसलिए मासिक स्राव की उम्र तक वहां किसी भी लड़की या महिला नहीं जा सकती। अर्थात मां बनने की उम्र की महिलाओं के दर्शन मात्र से भगवान अपवित्र हो जाता है। कुछ ऐसे मंदिर हैं, जिनमें उक्त उम्र में स्त्रियां मंदिर जा तो सकती हैं, लेकिन मासिक स्राव के दिनों में नहीं। स्त्रियों का इस तरह से घोर अपमान तीर्थों में ही संभव है।
तीर्थों में अधिक उपभोक्ता अर्थात श्रद्धालु आ सकें, इसके लिए मार्केटिंग भी अद्भूत तरीके से की जाती है। प्रायः बताया जाता है कि अमुक तीर्थ में आने से सारे पाप धुल जाते हैं। अमुक तीर्थ में आने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। अमुक तीर्थ में आने से पूर्वजों को स्वर्ग मिल जाता है। तीर्थों की जितनी महिमा बतायी जाती है, अगर उसका एक प्रतिशन हिस्सा भी सच होता, तो आज कोई व्यक्ति दुखी नहीं होता। भारत दुनिया का सबसे समृद्ध देश होता। प्रत्येक व्यक्ति मरने के बाद स्वर्ग में ही होता। क्या ऐसा है? कई तीर्थ तो पाप करने की प्रेरणा देते हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वहां एक बार भी जाने से सारे पाप खत्म हो जाते हैं। तो फिर पाप से डरना क्या? दिन-रात पाप करो और एक बार तीर्थ हो आओ।
फिर भी अगर पाप रह गया है, तो भी स्वर्ग की गारंटी है। शर्त बस इतनी है कि उसके वंशजों में से कोई एक खास तीर्थ जाकर उसके नाम से तर्पण कर दे। उसे मोक्ष मिल जाएगी और वह स्वर्ग चला जाएगा।

सोचने वाली बात यह है कि अगर तीर्थों में और वहां वास करने वाले देवी-देवताओं में इतनी ही शक्ति होती, तो फिर वहां इतने हादसे क्यों होते हैं? घर से लोग चलते हैं कि वहां जाने से मनोकामना पूरी हो जाएगी। आते समय ही गाड़ी की दुर्घटना हो जाती है और उनके बच्चे अनाथ हो जाते हैं, पत्नी विधवा हो जाती है, वृद्ध माता पिता असहाय हो जाते हैं। ऐसे मामलों में तीर्थों की शक्ति कहां चली जाती है? हर साल तीर्थ यात्रा करने वाला व्यक्ति भी पूरा जीवन दरिद्र ही बना रहता है। क्या उसकी मनोकामना दरिद्र बने रहने की थी? अगर तीर्थ यात्रा करने से ही सारे पाप कट जाते हैं, तो फिर न्यायालयों की जरूरत क्या है? कोई भी अपराध करो और तीर्थ यात्रा कर आओ। मनोकामना पूरी करवाने वालों में बड़ी संख्या निःसंतानों की भी होती है। कई बार तीर्थ यात्रा करने वाले भी जीवन भर निःसंतान रह जाते हैं। यहां तक कि उन तीर्थों के स्थायी निवासियों में भी कई निःसंतान होते हैं। ऐसा क्यों? तीर्थों के देवता तो कुछ नहीं कर पाते, हां कई बार पुजारी जरूर मौका मिल जाने पर संतान प्राप्ति में मदद कर देते हैं। अब वैसे पुजारी तीर्थों से निकलकर देश के विभिन्न भागों में फैल गये हैं, जो स्त्रियों को गर्भवती बना रहे हैं। आये दिन देश भर में उनका भंडा फूट रहा है।
सच यह है कि सारे तीर्थ सिवाय ढकोसले के और कुछ नहीं। जिनकी आजीविका तीर्थाटन करने वालों के भरोसे चलता है, वे इसका जबरदस्त ढंग से प्रचार करते हैं। लोग उनके झांसे में आकर उनकी बात मान लेते हैं। तीर्थों के प्रचार में भी उसी तरह के दावे किये जाते हैं, जैसे क्रीम लगाकर काले चेहरे को गोरा बनाने का दावा किया जाता है। क्रीम लगाने से कोई काला तो कभी गोरा नहीं होता, कंपनियों को खूब मुनाफा होता है।


सुधीर


1 टिप्पणी:

IRFAN ने कहा…

एसी ही थोडी कुछ नयी बाते मुस्लिम्स में भी चलने लगी हे.