याद कीजिए लोकपाल को लेकर अन्ना के आंदोलन को। 16 अगस्त 2012 को शुरू हुआ आंदोलन। सभी आंदोलनकारियों ने साफ तौर पर कहा था कि वे राजनीति नहीं करेंगे। अन्ना और उनके तमाम सहयोगियों पर कांग्रेस के विरोध का आरोप लगा था। कहा गया था कि वे भाजपा के पक्ष में काम कर रहे हैं। तब सबने बड़े जोर से जवाब दिया था कि कानून बनाना सत्तारूढ़ दल का काम है। सत्ता में कांग्रेस है, इसलिए वे उसके खिलाफ बोल रहे हैं। कई बार यह भी कहा कि अगर कांग्रेस अन्ना के पसंद का लोकपाल बिल पास कर देती है तो वे कांग्रेस का विरोध बिल्कुल नहीं करेंगे। यह भी कहा कि वे किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं कर रहे हैं और न करेंगे। तर्क यह भी दिया कि सभी राजनीतिक दल समान रूप से भ्रष्ट हैं।
आश्वासन के बाद भी लोकपाल बिल पास नहीं हुआ। टीम अन्ना हिसार उपचुनाव में खुलकर कांग्रेस के विरोध में आ गई। उन्होंने किसी उम्मीदवार को समर्थन तो नहीं दिया, लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार का विरोध किया। कांग्रेस के उम्मीदवार की बुरी तरह से पराजय हुई।
उसके बाद भी आंदोलन चलता रहा। फिर वह घड़ी आई जब अरविंद केजरीवाल लोकपाल बिल की मांग को लेकर खुद अनशन पर बैठे। कुछ दिनों के बाद अन्ना भी अनशन में शामिल हुए। सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। उसी अनशन के बाद टीम अन्ना ने राजनीति में आने का फैसला किया। मंच से सार्वजनिक रूप से घोषणा की गई कि अब टीम अन्ना राजनीति में आएगी। जनता से भी सहमति ली गई।
लेकिन कुछ दिन ही बीते थे कि इस पर टीम अन्ना दो भागों में बंट गई। एक ऐसा पक्ष तैयार हुआ जो पहले की तरह राजनीति से दूरी बनाए रखने पर अड़ा रहा। खुद अन्ना इसी खेमे में थे। इसमें किरण बेदी व कुछ और सदस्य थे।
दूसरा गुट अरविंद केजरीवाल का था। इसमें उनके साथ मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास आदि थे। 2 अक्टूबर 12 को आम आदमी पार्टी का गठन हुआ। अन्ना और उनके साथियों ने टीम केजरीवाल से दूरी बनाए रखी। हां, जब बिजली बिल को लेकर केजरीवाल ने जब अनशन किया तो अन्ना उनसे मिलने आए। लेकिन वे और उनके साथ रह गए लोग राजनीति से दूरी बनाए रखने पर अड़े रहे।
दिसंबर 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी दिल्ली में छा गई। दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और फिर सरकार भी इसी की बन गई।
उधर, अन्ना संसद के शीतकालीन सत्र के साथ लोकपाल की मांग को लेकर अपने गांव रालेगण सिद्धि में अनशन पर बैठ गए। चार राज्यों में पराजय का असर हो या कुछ और, सरकार ने संसद में लोकपाल बिल पेश कर दिया। इस पर भी दोनों गुटों की राय बंटी रही। केजरीवाल ने इसे बाहियात बताया तो टीम अन्ना ने सही करार दिया। बहरहाल संसद से बिल पास हो गया और अन्ना ने अनशन समाप्त कर दिया।
इसी के साथ अन्ना के सहयोगी अपना रूप दिखाने लगे। इसमें खुलकर आगे आईं किरण बेदी। कांग्रेस ने जैसे ही लोकपाल बिल पास किया और किरण बेदी भाजपा के समर्थन में उतर गईं।
अब तक राजनीति से तौबा करती रही किरण बेदी को अचानक नरेंद्र मोदी देश के मसीहा नजर आने लगे। पहले ट्विटर पर समर्थन किया और अगले दिन तमाम मीडियाकर्मियों के सामने। वह नेता किरण बेदी को अचानक सबसे बेहतर नजर आने लगा, जिसे उसके प्रशंसक भी अल्पसंख्यकों के कट्टर दुश्मन के रूप में देखते हैं।
जो टीम अन्ना के राजनीति में उतरने के एकदम खिलाफ थीं, वो एकदम एक पार्टी विशेश के समर्थन में उतर आईं। ऐसा क्यों हुआ, लोग अपने-अपने हिसाब से सोच रहे हैं।
अब फिर से सारी बातों को रिवाइंड कीजिए। आंदोलन के समय हमेशा कहा गया कि टीम अन्ना किसी राजनीतिक दल के खिलाफ नहीं है और न ही किसी के समर्थन में है। सभी दलों को समान रूप से भ्रष्ट कहा गया। लोकपाल बिल पास न होने के लिए जिम्मेदार भी सभी दलों को ठहराया गया था। जब हिसार उपचुनाव में कांग्रेस का विरोध किया जा रहा था तो भी किसी दल या उम्मीदवार का समर्थन नहीं किया गया। सिर्फ इसलिए कि कहीं यह संदेश नहीं जाए कि टीम अन्ना किसी खास दल के पक्ष में होने के कारण कांग्रेस का विरोध कर रही है।
जब राजनीतिक दल के गठन की बात आई तो इसी किरण बेदी ने सबसे अधिक विरोध किया। कहा जाता है कि बेदी ने ही अन्ना हजारे को इससे पर रहने के लिए मोटिवेट किया। किरण बेदी खुलकर कहती रहीं कि अन्ना और वे किसी तरह की राजनीति के पक्ष में नहीं हैं। और अब अचानक भाजपा का खुलकर समर्थन...। सभी चकित हैं कि क्या अन्ना अंदर से मोदी के पक्ष में थे। क्या अन्ना का कांग्रेस विरोध भाजपा के समर्थन में था? कांग्रेस ने लोकपाल की मांग पूरी की और उसके तुरंत बाद बीजेपी का विरोध!
किरण वेदी के इस कदम ने अन्ना के पूरे आंदोलन को ही शक के घेरे में ला दिया है। अब तक अन्ना और उनके सहयोगियों के राजनीति निरपेक्ष होने के दावों पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है।
अरविंद केजरीवाल ने तो मंच से अन्ना के तमाम समर्थकों से अनुमति लेकर राजनीति शुरू की। यहां तक उस वक्त अन्ना की भी सहमति थी। घोषणा के अनुरूप उन्होंने किसी दल को न समर्थन दिया और न मांगा। दिल्ली की जनता ने भी जनादेश देकर साबित किया कि वह केजरीवाल के फैसले के साथ है। साथ ही, तमाम आंदोलनकारियों से किए गए वादे के अनुरूप किसी पार्टी का समर्थन भी नहीं किया। लेकिन किरण बेदी...!
तो कारण क्या हो सकते हैं? एक तो यह कि किरण वेदी की का संबंध भाजपा से शुरू से ही था, जिसे उन्होंने समय आने पर उजागर किया। वह दिल्ली चुनाव से पहले भी दबे स्वरों में भाजपा का समर्थन यह कहकर कर चुकी थीं कि आप कांग्रेस का विकल्प नहीं हो सकती। दूसरा निष्कर्ष यह भी निकलता है कि किरण वेदी के मन में अरविंद केजरीवाल को लेकर पूर्वाग्रह है। और इस हद तक है कि उन्हें दागदार अतीत वाले नरेंद्र मोदी का तो नेतृत्व पसंद है लेकिन बेदाग अरविंद केजरीवाल का नहीं। शायद यही वजह है कि उन्हें केजरीवाल और उनकी सरकार में तो तमाम खामियां नजर आती हैं लेकिन भाजपा के किसी नेता या सरकार में एक भी नहीं। यह तो साबित हो ही गया कि केजरीवाल की राजनीति करने के पक्ष में वह क्यों नहीं थीं।
किरण वेदी जी! यह दगाबाजी है। अन्ना के आंदोलन के साथ। आंदोलन से जुड़े लोगों के साथ। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम और माहौल के साथ। अन्ना के अनशन के मकसद के साथ। इतिहास आपको इसी रूप में याद करेगा।
सुधीर
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